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भारतीय संस्कृति में दान
. १४५ है। दान का सम्बन्ध चारित्र से ही माना गया है । आहारदान, औषधदान और अभयदान आदि अनेक प्रकार के दानों का वर्णन विविध ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। भगवान महावीर ने 'सूत्रकृतांगसूत्र' में अभयदान को सबसे श्रेष्ठ दान कहा है - "अभयदान ही सर्वश्रेष्ठ दान है।" दूसरों के प्राणों की रक्षा ही अभयदान है। आज की भाषा में इसे ही जीवनदान कहा गया है। जैन परम्परा में धर्म के चार अंग स्वीकार किये हैं - दान, शील, तप एवं भाव । इनमें दान ही मुख्य एवं प्रथम है। 'सुखविपाकसुत्र' में दान का ही गौरव गाया गया है।
भगवान महावीर ने बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है - मुधादायी और मुधाजीवी । दान वही श्रेष्ठ दान है, जिससे दाता का भी कल्याण हो और ग्रहीता का भी कल्याण हो। दाता स्वार्थ रहित होकर दे और पात्र भी स्वार्थ-शून्य होकर ग्रहण करे । भारतीय साहित्य में इन दो शब्दों से सुन्दर शब्द दान के सम्बन्ध में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते । दाता और ग्रहीता तथा दाता और पात्र - शब्दों में वह गरिमा नहीं है, जो मुधादायी और मुधाजीवी में है। 'मुधा' शब्द का अभिधेय अर्थ अर्थात् वाक्यार्थ है - व्यर्थ । परन्तु लक्षणा के द्वारा इसका लक्ष्यार्थ होगा - स्वार्थरहित । व्यंजना के द्वारा व्यंग्यार्थ होगा - वह दान, जिसके देने से दाता के मन में अहंभाव न हो और लेने वाले के मन में दैन्यभाव न हो। इस प्रकार का दान विशुद्ध दान है, यह दान ही वस्तुतः मोक्ष का कारण है। न देने वाले को किसी प्रकार का भार और न लेनेवाले को किसी प्रकार की ग्लानि । यह एक प्रकार का धर्मदान कहा जा सकता है। शास्त्रों में जो दान की महिमा का कथन किया गया है, वह इसी प्रकार के दान का है। यह भव-बन्धन काटने वाला है । यह भव-परम्परा का अन्त करने वाला दान है। ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में दान :
वेद परम्परा के साहित्य में भी दान की मीमांसा पर्याप्त हुई है । मूल वेदों में भी यत्र-तत्र दान की महिमा है, उपनिषदों में ज्ञान-साधना की प्रधानता होने से आचारों को गौण स्थान मिला है परन्तु आचार-मूलक ब्राह्मण साहित्य में आरण्यक साहित्य में और स्मृति साहित्य में दान के सम्बन्ध में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। आरण्यक में कहा गया है कि "सभी प्राणी दान की प्रशंसा करते हैं, दान से बढ़कर अन्य कुछ दुर्लभ नहीं है।" इस वाक्य में दान को