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भारतीय संस्कृति में दान सकता । उसका कोई दार्शनिक आधार नहीं है। न्यायदर्शन ने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये समग्र शक्ति लगा दी और वैशेषिक ने परमाणु को सिद्ध करने के लिए । जीवन की व्याख्या वहाँ नहीं हो पाई ।
योगदर्शन ज्ञान-प्रधान न होकर क्रिया-प्रधान अवश्य है। आचार का वहाँ विशेष महत्त्व माना गया है। मनुष्य के चित्त की वृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। उसकी साधना का मुख्य लक्ष्य है - समाधि की सम्प्राप्ति । उसकी प्राप्ति के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा
और ध्यान को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। यमों में अपरिग्रह और नियमों में सन्तोष का ग्रहण किया गया है। परन्तु दान की मीमांसा को कहीं पर भी अवसर नहीं मिला । दान का साधन के रूप में कहीं उल्लेख नहीं है। अतः यह सिद्ध होता है कि वेद मूलक षड्दर्शनों में एक मीमांसा दर्शन को छोड़कर शेष पांच दर्शनों में दान का कोई महत्त्व नहीं है। न उसका विधान है और न उसकी व्याख्या ही की गई है। श्रमण परम्परा में दान : ___वेद विरुद्ध श्रमण परम्परा के तीन सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं - जैन, बौद्ध और आजीवक । आजीवक परम्परा का प्रवर्तक गोशालक था। वह नियतिवादी के रूप में भारतीय दर्शनों में बहुचर्चित एवं विख्यात था। उसकी मान्यता थी कि जो भाव नियत हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता । संसार के किसी भी चेतन अथवा अचेतन पदार्थ में कोई मनुष्य किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता । सब अपने आप में नियत हैं । आज के इस वर्तमान युग में, आजीवक सम्प्रदाय का एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। अतः दान के सम्बन्ध में गोशालक के क्या विचार थे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता । उसके नियतिवादी सिद्धान्त के अनुसार तो उसकी विचारधारा में दान का कोई फल नहीं है।
- बौद्ध परम्परा में आचार की प्रधानता रही है। प्रज्ञा और समाधि का महत्त्व भी कम नहीं है, फिर भी प्रधानता शील की है। बुद्ध ने शील को बहुतं ही महत्त्व दिया है। सदाचार पर भी काफी जोर दिया है। दान भी एक सत्कर्म है, अतः यह भी शील की ही सीमा के अन्दर आ जाता है बौद्ध धर्म में बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए जिन दश पारमिताओं का वर्णन किया गया है, उनमें से एक