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________________ पञ्चम अध्याय भारतीय संस्कृति में दान वैदिक षड्दर्शन मे दान-मीमांसा : वेदगत परम्परा के षड्दर्शनों में सांख्यदर्शन और वेदान्तदर्शन ज्ञानप्रधान रहे हैं। दोनों में ज्ञान को अत्यन्त महत्त्व मिला है। वहां आचार को गौण स्थान मिला है। सांख्य भेदज्ञान से मोक्ष मानता है। प्रकृति और पुरुष का भेदविज्ञान ही साधना का मुख्य तत्त्व माना गया है। वहाँ प्रकृति और पुरुष- इन . दो तत्त्वों का ही विश्लेषण किया गया है। इन दोनों का संयोग ही संसार है, इन दोनों का वियोग ही मोक्ष है। आचार पक्ष की गौणता होने के कारण 'दान' की मीमांसा नहीं हो सकी। ___ वेदान्तदर्शन की स्थिति भी यही रही है। कुछ मौलिक भेद अवश्य है। सांख्य द्वैतवादी है, तो वेदान्त अद्वैतवादी रहा है। ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। यदि कुछ भी प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या ही है। 'अहं ब्रह्मास्मि' इस भावना से समग्र बंधन परिसमाप्त हो जाते हैं । वस्तुतः बन्धन है ही कहाँ ? उसकी तो प्रतीति मात्र हो रही है। अपने को प्रकृति और जीव न समझकर एकमात्र ब्रह्म समझना ही विमक्ति है। इस दर्शन में भी ज्ञान की प्रधानता होने से आचार की गौणता ही है। यही कारण है कि वेदान्तदर्शन में भी दान की मीमांसा नहीं हो पाई । दान का सम्बन्ध चारित्र से है और उसकी वहाँ गौणता है। न्यायदर्शन में तथा वैशेषिक दर्शन में पदार्थ ज्ञान को ही मुक्ति का कारण कहा गया है। वैशेषिक दर्शन में सप्त पदार्थों का तथा न्यायदर्शन में षोडश पदार्थों का अधिगम ही मुख्य माना गया है। न्यायशास्त्र में तो पदार्थ भी गौण है, मुख्य है, प्रमाणों की मीमांसा । वैशेषिक की पदार्थ-मीमांसा और न्याय की प्रमाण मीमांसा प्रसिद्ध है। अतः वहाँ पर दान का कोई विशेष महत्त्व नहीं कहा जा
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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