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दान से लाभ
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- कृपण के समान दानी संसार में न तो हुआ है और न ही कोई होगा। क्योंकि अपने सारे धन को बिना छुए ही एक साथ दूसरों को दे देता है, अर्थात् छोड़कर मर जाता है।
इस प्रकार ऋषियों, मुनियों एवं तीर्थंकरों या आचार्यों की दान के सहस्रमुखी प्रेरणाएँ हैं, जो विविध धर्मशास्त्रों या धर्मग्रन्थों में यत्र-तत्र अंकित है।
"उपार्जितानामर्थना, त्याग एव हि रक्षणम् ।
तडागोदरसंस्थानां, परिवाह इवाम्भसाम् ॥"-पंचतंत्र २/१५५
- संचित धन का दान करते रहना ही उसकी रक्षा का एक मात्र उपाय है। तालाब के पानी का बहते रहना ही उसकी शुद्धता का कारण है। ८. दान से ऋण-मुक्ति : . भारतीय संस्कृति में दान का अत्यन्त महत्त्व है । इस पर काफी विवेचन प्रस्तुत करने के पश्चात् अब हम इस विषय पर थोडा विवेचन प्रस्तुत करेंगे कि दान से ऋण मुक्ति कैसे हो सकती है?
. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अनेक जीवों का ऋणी है। इस ऋण को अदा करने के लिए वह दान देता है। लेकिन इसमें एक बात ध्यान रखने योग्य है कि पश्चिम में दान को कर्तव्य की श्रेणी में रखा गया है, जबकि पूर्व में दान को धर्म की श्रेणी में रखा गया है। जैनदर्शन के अनुसार भी धर्म का आरम्भ दान से होता है उसके बाद शील तप वगैरह का निरूपण करने में आता है।
मनुष्य की मानवता दान से ही निखरती है। इसीलिए भर्तृहरि ने भी कहा है कि लक्ष्मी का उपार्जन यदि अपने आप ही किया हो तो वह पुत्री के समान कहलाती है। यदि लक्ष्मी पिता द्वारा उपार्जित की हो और वसिहत से मिली हो तो बहिन के समान मानी जाती है और जो लक्ष्मी अन्य द्वारा उपार्जित हो तो वह परस्त्री के समान होती है । पुत्री और बहन के प्रति अपार वात्सल्य और स्नेह होता है, तब भी लम्बे समय तक पिता के घर में रख नहीं सकते। इसलिए इन तीनों में से किसी भी स्वरूप में मिली हुई लक्ष्मी का संग्रह करना योग्य नहीं है। इसलिए धर्मबुद्धि रखनेवाली आत्माओं को लक्ष्मी का परिग्रह करने के बनिस्पत उसका त्याग या