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________________ १३४ दान : अमृतमयी परंपरा "दान भोगो नाशस्तिस्रोगतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥" - धन की तीन गतियाँ (व्यय के मार्ग) हैं - दान, भोग और नाश । जो मनुष्य अपने धन का सुपात्र में या सत्कार्य में दान नहीं करता और उचित उपभोग नहीं करता है, उस धन की गति सिवाय नाश के और कोई नहीं है। फिर चाहे वह धन-नाश चोरों डकैतों द्वारा हो, लुटेरों द्वारा हो, संतान द्वारा हो या डॉक्टर, वकील या सरकार द्वारा हो अथवा किसी प्राकृतिक प्रकोप-भूकम्प, बाढ़, अग्निकाण्ड आदि से हो । किन्तु दान और उपभोग इन दोनों मार्गों में से मनुष्य यदि श्रेष्ठ मार्ग चुनना चाहे तो दान का मार्ग ही उसे चुनना चाहिए। धन-संग्रही कृपण का दृष्टान्त याद आ जाता है - . एक गाँव में एक कृपण और दानी रहता था। उसके पास न देने जैसी कोई वस्तु न थी। एक दिन एक महात्मा ने उससे कोई चीज मांगी, इस पर उसने उसे देने से इन्कार कर दिया । महात्मा ने उससे कहा - "तू बहुत ही संतोषी है।" किसी विचारक ने महात्मा से पूछा - "आप उल्टा कैसे कहते हैं, जो उदार है, उसे लोभी और जो लोभी है, उसे संतोषी कहते हैं, इसका क्या रहस्य है ? मुझे बताइये।" महात्मा ने उत्तर दिया - "जो दाता है, वह इस बात को लेकर लोभी है कि उसे एक के बदले में हजार मिलेंगे, फिर भी वह उतने दान से तृप्त न होकर अधिक से अधिक देता रहता है और जो लोभी है, वह संतोषी इसलिए हैं कि वह कुछ भी नहीं देता। इसलिए उसे आगे (परलोक) में भी कुछ मिलेगा नहीं, फिर भी वह सन्तुष्ट होकर बैठा है। भविष्य के लिए कुछ करने की चिन्ता नहीं करता, इसलिए संतोषी कहा है।" महात्मा के मुख से दानी और लोभी के अन्तर का रहस्य प्राप्त कर विचारक बहुत सन्तुष्ट हुआ। - वास्तव में कृपण का स्वभाव अत्यन्त धनलोभी बन जाता है। वह दीर्घ दृष्टि से नहीं सोचता कि यह सारा धन मुझे यहीं छोड़कर जाना पड़ेगा। इसीलिए कृपण के सम्बन्ध में संस्कृत के एक मनीषी ने बहुत ही सुन्दर व्यंग किया है - "कृपलेन समो दाता, न भूतो न भविष्यति । अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति ॥"
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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