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दान से लाभ
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से वाग्भट मंत्री उनके भावों को ताड़ रहे थे । मानो वे कह रहे हों कि "इन ७ द्रमकों का क्या लेना ?" वाग्भट मंत्री ने तुरन्त मुनीमजी को बुलाया और कहा“चिट्ठा लिखो । पहले तो चिट्ठा लिखने का विचार नहीं था, किन्तु अब लिखना होगा, सबसे पहला नाम लिखो भीमा का, दूसरा मेरा और फिर इन सब भाग्यशालियों का लिखो ।" सबके मुँह से स्वर फूट पडा - "पहले नाम भीमा का ?...।" मंत्री वाग्भट ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा "इस (भीमा) भाई ने अपनी सर्वस्व सम्पत्ति संघ को अर्पित की है । मैं स्वयं संघोद्धार के कार्य में संलग्न होते हुए भी अपनी सारी सम्पत्ति का शतांश भी खर्च करता हूँ या नहीं, इसमें सन्देह है । आप सब अपनी आय का कितना भाग खर्च करते हैं, यह तो आप जानें | संघ में सब भाई समान है । यहाँ कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं । सबका बराबर का हक है। मुझे जो संघपति का पद दिया गया है, वह तो केवल व्यवस्था के लिए है | ऊँचे आसन पर बैठने और बडप्पन प्रदर्शित करने के लिए नहीं ।" सब मन ही मन कहने लगे- धन्य है संघपति को ! वास्तव में भीमा का दान ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह सर्वस्व दान है I
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महात्मा गाँधी ने इसी दृष्टि से भारतीय नरेशों की तड़क-भड़क को देखकर उन्हें कर्त्तव्य का बोध दिया था और समाज के दरिद्रजनों के लिए दान की प्रेरणा दी थी। सब जिंदगी में भाग रहे हैं । उन्हें फायदा होगा जब वे अपने जीवन के उद्देश्य के बारे में सोचेगें । गाँधीजी ने कहा था कि उनका उद्देश्य 'हर एक आँख में से हर एक आँसू पोंछना ।' अगर हम गहराई से महसूस करें और उदारतापूर्वक अपने आप को समर्पित करें तो इस दुनियाँ में कम आँखों में आँसू होंगे।
द्रव्य की स्वयं के बहते रहने (दान द्वारा) में ही अपनी सार्थकता है, एक जगह स्थिर होकर पडे रहने में द्रव्य की द्रव्यता सार्थक नहीं होती । इसीलिए कबीर जी ने प्रेरणा की है।
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“पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढ़ों दाम, दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ।" नीतिकार भी इसी बात को स्पष्टतया कहते हैं
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