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दान : अमृतमयी परंपरा
उठते हैं। कोई दान लेने को आता है तो मन मारकर देता हूँ। वह उत्साह समाप्त हो गया है। अब मुझे क्या करना चाहिए ।" उसने इस प्रकार जब निखालिस दिल से अपने हृदय की बात साफ-साफ खोलकर रख दी तो सन्त ने कहा " तुम बड़े भाग्यशाली हो कि तुम्हें अपने मन का पता तो है । प्राय: अपने मन और जीवन का पता भी नहीं लगता कि वे बने हैं या बिगड़े हैं । इसलिए धन बढ़ जाने पर दान दूँगा, यह भावना मनुष्य की मानसिक दुर्बलता की निशानी है। उसे निर्धनता में भी यह भावना रखनी चाहिए कि मैं प्रतिदिन अपनी सीमित आय में से कुछ न कुछ अवश्य दान दूँगा ।
इसलिए अमीर के दान की अपेक्षा गरीब के थोड़े-से दान का भी महत्त्व ज्यादा है ।
अद्भुत दानी- भीमाशाह
भीमाशाह गरीब होते हुए भी बहुत उदार था । उसके दिल में भी जैन संघ के द्वारा किये जाने वाले सत्कार्यों में कुछ देने की ललक उठा करती थी । भीमाशाह छोटी-सी हँडिया में घी गाँव से भरकर लाता और शहर में आकर बेच देता था। गुजरात के जैन मंत्री वाग्भट ( बाहड) संघपति थे । जैन धर्म की प्रबल प्रभावना का उन्होंने जब बीड़ा उठाया तो संघ के श्रावकों ने प्रार्थना की इस शुभ कार्य में हमारा भी हिस्सा होना चाहिए। मंत्री वाग्भट ने संघ के सदस्यों से चन्दा लेना स्वीकार किया ।
श्रेष्ठी लोग आ-आकर स्वर्ण मुद्राओं के ढेर लगा रहे थे । किसी का नाम नहीं लिखा गया था । भीमाशाह ने सोचा- "मैं संघ के चरणों में क्या अर्पण करूँ ?” उसने जेब में हाथ डाला तो उसमें से केवल ७ द्रमक (दमड़ी) निकले। मंत्री वाग्भट समझ गये कि भीमाशाह को कुछ देना है । और भीमाशाह गरीब होने के कारण संकोच कर रहा था, उन ७ द्रमकों को, जो उसकी आज की सर्वस्व बचत थी, देने में लज्जित हो रहा था। अतः मंत्री ने प्रेम से अपने पास बुलाय " भीमाभाई ! क्या तुम्हें संघ के फण्ड में कुछ देना है ? लाओ
फिर ।" भीमा लज्जित हो रहा था । परन्तु मंत्री ने उसके भावोल्लास को देखकर उसके संकोच को मिटाया । भीमाशाह ने वे ७ द्रमक मुट्ठी बन्द करके दिये । पर मंत्री तो चतुर थे । उन्होंने उपस्थित सेठों को उसके ७ द्रमक बताए । सबके चेहरे
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