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दान से लाभ
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कि उसका आधा शरीर सोने का हो गया है। आनन्द से उसकी भूख मिट गई । उसने सोचा कि जहाँ अतिथि खाता है, वहाँ लोटने से शरीर स्वर्णमय हो जाता है। अतएव वह उस दिन से जहाँ कहीं अतिथि को भोजन करते देखता, रुक जाता और उसी स्थान पर लोटता । उसकी एकमात्र इच्छा अपने शेष आधे शरीर को सोना बना लेने की थी। मगर कई वर्ष बीत जाने पर भी उसकी यह इच्छा पूर्ण नहीं हुई । अनेक अतिथि सत्कार वाले स्थानों में वह लोटा, पर उसका एक बाल भी सोने का नहीं हुआ । अन्त में राजसूय यज्ञ का समय आया । हजारोंलाखों व्यक्तियों ने वहाँ भोजन किया । वह नेवला भी बड़ी आशा के साथ रातदिन राजसूय यज्ञ के भोजनालय के एक छोर से दूसरे छोर तक लोटता रहा, किन्तु उसका एक रोम भी सोने का न हुआ। युधिष्ठिर आदि ने नेवले के मुँह से उसकी सारी कहानी सुनी । राजसूय यज्ञ करने के कारण युधिष्ठिर के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया था। नेवले की कहानी सुनकर वह दूर हो गया और उन लोगों के हृदय में यह ज्ञानोदय हुआ कि " एक गरीब दूसरे गरीब को हार्दिक सहानुभूति के साथ छोटा दान भी देता है तो उसकी महिमा अतुलनीय हो जाती है । वैसा दान जिस स्थान पर होता है, उसके आसपास का वातावरण भी पवित्र हो जाता है । "
इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गरीब व्यक्ति अपने को ही समझकर दानवृत्ति से रूके नहीं, वह यह सोचे कि मेरे दान का भी बहुत बड़ा . महत्त्व है। वह यह न सोचे कि मेरे पास धन होने पर दान करूँगा। बल्कि धन ज्यादा बढ़ जाने पर कभी-कभी दान की भावना मन्द हो जाती है ।
एक प्रसिद्ध सन्त के पास एक भक्त आया, जो पहले गरीब था, अब सम्पन्न हो गया था । उसने सन्त के सामने अपना हृदय खोलकर रख दिया। कहने लगा - "महाराज ! जब मैं गरीब था, तब हृदय में दान देने की प्रबल भावना उठती थी । कोई स्वधर्मी बन्धु आता तो उसे अच्छे से अच्छा भोजन प्रेम से खिलाने की इच्छा होती थीं। घर में किसी ची की जरूरत पड़ती तो टालने की आदत नहीं थी । मैं समझता था पैसा आज है कल नहीं रहेगा । अतः जो कुछ मिला है, उसका उपयोग सत्कार्य में क्यों न कर लूँ । किन्तु ज्यों-ज्यों पैसा बढ़ता गया, दान देने की भावना घटती गई । अब वे भाव नहीं रहे, न हृदय में
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