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दान : अमृतमयी परंपरा
दान करने में ही स्व-पर का कल्याण समझते हैं। .
इसलिए कवि भी सरोवर के बनिस्पत बरसने वाले बादलों का तथा अथाह सम्पत्ति के स्वामी के बनिस्पत दानवीर की प्रशस्ति करते हैं -
लाखों आते, लाखों जाते, दुनिया में न निशानी है, जिसने कुछ देकर दिखलाया, उसकी अमर कहानी है,
जगह-जगह दान की महत्ता प्रदर्शित की गई है। लेकिन हमारे महर्षियों का कहना है कि दान दो, पर लेने वाले को दीन-हीन समझकर मत दो । यदि दीन-हीन समझकर दोगे तो उसमें अहंकार का विष मिल जायेगा, जो दान के ओज को नष्ट कर देगा। अतः लेनेवाले को भगवान समझकर दो। जैन दृष्टि से प्रत्येक आत्मा को परमात्मा समझ कर दो । बादलों की तरह अर्पण करना सीखो। बादल आकाश से पानी नहीं लाते, वे भूमण्डल से ही ग्रहण करते हैं। बादलों के पास जो एक-एक बूंद का अस्तित्व है, वह सब इसी भूमण्डल का है। इसी से लिया और इसी को अर्पण कर दिया। भूमण्डल की चीज भूमण्डल को समपित है। इसमें एहसान किसी बात का नहीं और न अहंकार है, बल्कि प्रेम और विनय है। बस यही वृत्ति प्रत्येक मानव में होनी चाहिए कि वह प्रत्येक आत्मा को परमात्मा समझकर अर्पण करे ।
भगवदर्पण की यह भावना भक्तिमार्ग की देन है। किन्तु दर्शन की दृष्टि से भी इसका महत्त्व कम नहीं है। जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों ही दर्शन आत्मा में परमात्मा स्वरूप या परमात्म अस्तित्व की निष्ठा रखते हैं। आत्मा परमात्मा है, जब हम किसी आत्मा की सेवा करते हैं, उसे कुछ अर्पण करते हैं तो एक दृष्टि से परमात्मा के लिए ही अर्पण किया जाना समझना चाहिए । अतः भक्तियोग तथा ज्ञानयोग की दृष्टि से विचार करें तो चैतन्य के प्रति अर्पण ईश्वरार्पण ही है, जब किसी चेतन आत्मा को कुछ देते हैं तो उसके विराट ईश्वररूप पर दृष्टि टिकानी है कि इस देह में भगवान है, शरीर में आत्मा है वही परमात्मा है मैं उसे ही दे रहा हूँ। यह दान की विराट् दृष्टि है, क्षुद्र देह को न देखकर विराट् आत्मा को देखना और उसके प्रति अर्पण करना - यह दान का दर्शन है। दान की इस विराट् दृष्टि से युक्त व्यक्ति सब कुछ भगवान का भगवद्मय मानकर चलता है।
जिनके दिल में दान का दीपक जल उठता है, कर्त्तव्य की रोशनी