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________________ १२३ दान से लाभ जैनशास्त्र स्थानांगसूत्र में समाज के इसी ऋण की ओर स्पष्ट संकेत किया गया है - "तिण्हं दुप्पडियारं समणाउसो। तं जहा- अम्मापिउणो, भट्टिस्स, धम्मायरियस्स।". - स्था. ३/१/१३५. - आयुष्मान श्रमणों । इन तीनों के उपकार (दान) का बदला (प्रतिदान) देना बड़ा दुष्कर है। वे तीन ये हैं - माता-पिता का, स्वामी का और धर्माचार्य का। इससे यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि दान भी समाज और अन्य प्राणियों से सेवा के रूप में या सहायता के रूप में लिये हुए दान का प्रतिदान (बदला) चुकाना है। प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन पर जो अनेकों प्राणियों का, समाज, परिवार, जाति व राष्ट्र का चढ़ा हुआ ऋण है, या जो ऋण प्रतिदिन चढ़ता जा रहा है, उसे प्रतिदान देकर चुकाना एवं नई पीढ़ी को ऋण देना अनिवार्य कर्तव्य है और ऐसा सोचकर प्रतिदिन दान देना आवश्यक है। दान देना कर्तव्य है क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। किसी मनुष्य ने कुछ पाया है, या जो कुछ पाने में वह समर्थ हुआ है, उसमें सारे समाज का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग हैं । इसलिए मनुष्य समाज का ऋणी है और समाज प्रत्येक मनुष्य से उसका हिस्सा पाने का अधिकारी है। अतएवं इस दृष्टि से पाने का अधिकारी है । अतएव इस दृष्टि से दान का यह अर्थ सहज ही प्रतिध्वनित होता है कि मनुष्य का कर्तव्य है, समाज को अपने अधिकार का देना । यानी दान एक तरह से दुःखी और भूखे आदि को उसका अधिकार सौंपकर अपना कर्त्तव्य अदा करना है। यही प्रेरणा ईशावास्यउपनिषद् में दी गई है - "तेन त्यक्तेन भुजीथाः मा गृधः कस्यस्विद् धनम् ।" - पहले त्याग (दान) करके फिर उपभोग करो । किसी भी पदार्थ या धन पर आसक्ति न करो, धन किसका है ?
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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