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दान से लाभ
१२१ फेड़-पौधे और जंगल की अगणित वनस्पतियां सब अपने-अपने पदार्थ को मुक्त हाथों से लुटा रही हैं । क्या नदी और मेघमाला अपना मीठा जल स्वयं पीती हैं ? क्या सूर्य-चन्द्र अपना प्रकाश दूसरों को नहीं देते ? क्या पेड़, पौधे, फल फूल आदि अपने पदार्थों का स्वयं उपभोग करते हैं ? ये सब महादानी बनकर जगत् को दान की सतत प्रेरणा देते रहते हैं कि मनुष्य तेरे पास भी जो कुछ है, उसे दूसरों को दे, स्वयं अकेला किसी भी चीज का उपभोग न कर । इसीलिए नीतिकार एक छोटे-से श्लोक में प्रकृति के तमाम वैभव का उपयोग दान (परोपकार) के लिए बताते हैं । "नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीतीं, पेड़-पौधे फलों का उपभोग स्वयं नहीं करते, दानी मेघ अपने जल से पैदा हुए धान्य को स्वयं नहीं खातें । सज्जनों की विभूतियाँ (वैभव) भी परोपकार (दान) के लिए होती हैं।"
.. फलदार पेड़ों के कोई पत्थर मारता है या कोई उनकी प्रशंसा करता है, तो भी वे दोनों को फल देते हैं। नदियों में मैला डालता है या निन्दा करता है, तो भी वे मीठा पानी देती हैं और कोई दूध से पूजा करता है, प्रशंसा या स्तुति करता है तो भी मीठा पानी देती हैं।
. नदी निष्काम भाव से शीतल मधुर जलदान देती हुई ग्रीष्म ऋतु में भी बहती रही । नदी की मूक प्रेरणा यही है मेरी तरह निष्काम भाव से अपने पास जो भी तन, मन, धन, साधन हैं, उन्हें दूसरों को दान देते हुए आगे बढ़ते रहो, ग्रीष्म ऋतु में मेरी तरह क्षीण होने पर भी दान का प्रवाह सततं बहाते रहो, तुम्हारी प्रगति रुकेगी नहीं, तुम्हारा धन वर्षा ऋतु में मेरी तरह पुनः बढ जायेगा, अन्यथा तालाब की तरह स्वार्थी और अपने धन में आसक्त बनकर बैठे रहोगे, उसे दूसरों को दोगे नहीं तो तालाब की तरह एक दिन सूख जाओगे।
दान की परम्परा नदी के प्रवाह की तरह अखण्ड चालू रहनी चाहिए। उसे बंद करना, जैन दृष्टि से, दानान्तराय कर्मबंध करना है।
दान की दैनिक परम्परा तभी चालू रह सकती है, जबकि देने वाला
१. पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः, स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः ।
नादन्ति सस्यं लघु वारिवाहाः, परोपकाराय सतां विभूतयाः ॥