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दान : अमृतमयी परंपरा उधर देखा, पर वहाँ देने योग्य कुछ भी न मिला । कवि के हृदय में पश्चात्ताप का पार न था । सोचा - "माघ ! क्या तू आए हुए याचक को खाली हाथ लौटाएगा? इसे तेरी प्रकृति सह नहीं सकती। पर क्या किया जाय? कुछ हो भी तो देने को ?" माघ विचार में डूबे इधर-उधर देख रहे थे । कुछ उपाय नहीं सूझ रहा था । आखिर एक किनारे सोई हुई पत्नी की ओर उनकी दृष्टि गई। उसके हाथों में कंगन चमक रहे थे । सम्पत्ति के नाम पर यही कंगन उसकी सम्पत्ति थे। उन्होंने वही कंगन उस ब्राह्मण को यह कह कर दे दिये कि "मेरे घर में इस समय और कुछ नहीं मिल रहा है जो आपको दे सकूँ। यह एक कंगन है, जो आपकी पुत्री के हाथ में पहने हुई थी, उसी की ओर से मैं आपको यह भेंट कर रहा हूँ। मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है।" ब्राह्मण सुनकर गद्गद् हो
गया।
सच में, आनन्द का सच्चा स्रोत दान की प्रवर्तमाला से ही प्रवाहित होता
है।
ऐसी थी अपने दानवीरों की उद्धात भावना । अपने राष्ट्रपिता गाँधीजी . को परिग्रह दुःखदायी लगा। उन्होंने दान की भावना को अन्य की सेवा के लिए स्वेच्छापूर्वक के त्याग के संदर्भ में समझाते हुए लिखा है कि - "जब मैंने अन्य की सेवा के लिए सर्वस्व का त्याग किया तभी मेरे कंधे से भारी बोझ दूर हो गया।" उनकी श्रद्धा स्वेच्छापूर्वक के त्याग में आरोपित हुई और यह श्रद्धा जब ऐच्छिक गरीबी के व्रत में परिणित हुई तब वह विचारधारा ने समग्र राष्ट्र को समाजवाद का आदर्श दिया।
आनंद श्रावक, कर्ण और बलिराजा जैसे दानवीरों को भावपूर्वक वंदन करते हैं । सांप्रत समय में जो दानवीरों परमार्थ हित के लिए अपनी संपत्ति का उपयोग करके लक्ष्मी को महालक्ष्मी बना रहे हैं उनके प्रति नतमस्तक होते हैं। ७. दान की पवित्र प्रेरणा (1) प्रकृति द्वारा दान की मूक प्रेरणा
विश्व में प्रकृति के जितने भी पदार्थ हैं, वे सबके सब अहर्निश सतत दान की प्रेरणा देते रहते हैं क्या सूर्य, क्या चन्द्रमा, क्या नदी, क्या मेघ, क्या