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दान से लाभ
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निकाल देना ही बेहतर है, इस कारण वे स्वयं अपने हाथों से दान देने में अपना अहोभाग्य समझते थे ।
इसीलिए नीतिकार कहते हैं -
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"हस्तस्य भूषणं दानं, सत्यं कण्ठस्य भूषणम् । श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्र, भूषणैः किं प्रयोजनम् ?"
हाथ का आभूषण दान है, कंठ का आभूषण सत्य है और कान का आभूषण शास्त्र है। ये आभूषण हों तो, दूसरे बनावटी आभूषणों से क्या प्रयोजन हैं ?
जिसके हाथ से सतत दान का प्रवाह जारी हो, उस हाथ के लिए दान ही आभूषण रूप बन जाता है । ऐसे व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व या सौन्दर्य के प्रदर्शन के लिए सोने-चाँदी के आभूषणों की जरूरत नहीं पड़ती ।
संस्कृत साहित्य में माघ कवि का स्थान महत्त्वपूर्ण है । भारत के इनेगिने संस्कृत कवियों में वे माने जाते हैं। उनकी कविता की भाँति उनकी उदारता की जीवन्त गाथाएँ भी बड़ी मूल्यवान हैं। उन्हें कविता से लाखों का धन मिलता था, लेकिन उनका यह हाल था कि इधर आया, उधर दे दिया । अपनी इस दानवृत्ति के कारण वे जीवनभर गरीब रहे । कभी-कभी तो ऐसी स्थिति आ जाती कि आज तो है, कल के लिए नहीं रहेगा । अत: उन्हें भूखे ही सोना पड़ता था । ऐसी स्थिति में भी माघ कवि यही कहा करते थे – “माघ का गौरव पाने मैं नहीं देने में हैं । "
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एक बार वह अपनी बैठक में बैठे थे। सख्त गर्मी का दिन था, दोपहर के समय एक गरीब ब्राह्मण उनके पास आया। माघ कवि अपनी कविता का संशोधन करने में मग्न थे । ज्यों ही ब्राह्मण ने नमस्कार किया उन्होंने ऐसी धूप में आने का कारण पूछा। माघ कवि ब्राह्मण की अभ्यर्थना सुनकर विचार में पड़ गए । यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि उस समय उनके पास एक जून खाने को भी नहीं बचा था । मगर गरीब ब्राह्मण आशा लेकर आया है, अत: कवि की उदार प्रकृति से रहा नहीं गया । उन्होंने ब्राह्मण को आश्वासन देते हुए कहा 'अच्छा भैया ! बैठो, मैं अभी आता हूँ ।" यों कहकर वे घर में गए। इधर
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