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________________ ११४ दान : अमृतमयी परंपरा दान से मनुष्य में दया, नम्रता, क्षमा, सेवा, करुणा, आत्मीयता आदि गुण अनायास ही आ जाते हैं, जिसके कारण वह स्वार्थत्याग, लोभत्याग आदि करता है। दान से मानसिक सुख-शान्ति मिलती है । शारीरिक सुख वगैरह भी मिलता ऋग्वेद (१/१२५/६) में स्पष्ट कहा है - "दक्षिणावतामिदिमानि चित्रा, दक्षिणावतां दिवि सूर्यास । दक्षिणावन्तो अमृत भजन्ते, दक्षिणावन्त प्रतिरन्त आयुः ॥" - दानियों के पास अनेक प्रकार का ऐश्वर्य होता है, दानी के लिए ही आकाश में सूर्य प्रकाशमान है। दानी अपने दान से अमृत पाता है, दानी अति दीर्घायु प्राप्त करता है। जो व्यक्ति निःस्वार्थभाव से दान देता है, उसकी प्रशंसा मनुष्य ही नहीं, देवता भी करते हैं। शास्त्रों में या जैन कथाओं में जहाँ-जहाँ किसी महान् आत्मा का दान देने का प्रसंग आता है, वहाँ-वहाँ यह पाठ अवश्यत आता है - ___ "अहो दाणं, अहो दाणं ति घुढे ।" - देवताओं ने 'अहो दानं, अहो दानं', की घोषणा की । अर्थात् उस अनुपम दान की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की । इसीलिए नीतिकार कहते हैं - . "दानं देवाः प्रशंसन्ति, मनुष्याश्च तथा द्विजाः ।" - देवता भी दान की प्रशंसा करते हैं, मनुष्य और ब्राह्मण तो करते ही देवता दान की प्रशंसा क्यों करते हैं ? इसलिए करते हैं कि देवलोक में दान की कोई प्रवृत्ति होती नहीं, देवलोक में कोई महात्मा या सुपात्र ऐसा नहीं मिलता, जिसे दान दिया जाय । दान के लिए सुपात्र उत्तम साधुसन्त, निःस्पृही त्यागी पुरुष मनुष्य लोक में ही मिल सकता है । इसलिए देवता दान के लिए तरसते हैं कि वे अपने हाथों से दान के योग्य किसी पात्र को दान नहीं दे पाते। जब दान नहीं दे पाते हैं, तो दान से होने वाला विपुल लाभ भी प्राप्त नहीं कर सकते । इसी कारण देवता दान की महिमा जानते हुए भी स्वयं दान न दे पाने के
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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