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दान से लाभ
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कारण जो दान देता है और उत्तम पात्र को दान देता है, उसकी प्रशंसा उसका समर्थन मुक्त कण्ठ से करते हैं । वे उस व्यक्ति को महान् भाग्यशाली मानते हैं, जो अपनी लोभ संज्ञा को वश में करके दान देते हैं ।
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जिस समय भगवान महावीर ५ महिने और २५ दिन तक दीर्घ तपस्या अभिग्रह के रूप में करके कौशाम्बी में भ्रमण कर रहे थे, उस समय राजकुमारी चन्दनबाला ने भगवान महावीर को उड़द के बाकुले आहार-रूप में दिये । उस दान की देवों ने महती प्रशंसा की, 'अहो दानं' की घोषणा की ।
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इस प्रकार मानव-जीवन में दान का महत्त्व किसी भी प्रकार से कम नहीं है। दान का मूल्यांकन वस्तु पर से नहीं, भावों पर से ही किया जाता है । देवता भावों को ही पकड़ते हैं, वस्तु या वस्तु की मात्रा को वे नहीं देखते । इसी कारण वे तुच्छ से तुच्छ वस्तु के अल्प मात्रा में दिये गए दान को महत्त्वपूर्ण मानकर उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते ।
६. दान द्वारा उद्धात भावनाओं का विकास
भारतीय संस्कृति के एक संत ने कहा "जो अर्पण करता है, वह देवता है। देवै सो देवता ।" जो दूसरों को देता है, वह देव है । जिसके अन्तर मे देवत्व विद्यमान रहता है, वह देता है। सूर्य निरन्तर प्रकाश देता रहता है, इसलिए देव है । इसी तरह चन्द्रमा और तारे भी प्रकाशदाता होने के कारण देव हैं। इसी तरह अग्नि, वायु, पानी, नदी, मेघ आदि सब अपनी-अपनी चीजों का
न करते हैं, इसीलिए देव न होते हुए भी देव माने जाते हैं । वास्तव में दान देनेवाले का हृदय इतना उदार और नम्र हो जाता है कि उसमें क्षमा, दया, सहनशीलता, सन्तोष आदि दिव्य गुण स्वतः ही प्रगट हो जाते हैं । मनुष्यों के लिए वेदों में 'अमृतस्य पुत्राः' कहा गया है। भगवान महावीर ने ऐसे दिव्य गुणशाली गृहस्थ के लिए 'देवानुप्रिय' (देवों का प्यारा) शब्द का प्रयोग किया है। दान देने से व्यक्ति में उदारता आदि दिव्य गुण स्वत: विकसित होते जाते हैं और वह देव बन जाता है । वह अपने खर्च में कटौती करके, स्वयं कष्ट उठाकर भी दूसरों को कुछ न कुछ देता रहता है । ऐसा व्यक्ति कंजूस नहीं विवेकी देव है ।