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________________ दान से लाभ ११३ स्थापित करने और उनके सुख-दुःख में संविभागी बनने की दृष्टि से भी गृहस्थ श्रावक के लिए यह व्रत रखा है। इस दृष्टि से दान हृदय की उदारता का पावन प्रतीक है, मन की विराट्ता का द्योतक है और जीवन के माधुर्य का प्रतिबिम्ब जैन मनीषियों ने प्रायः 'दान' के स्थान पर 'संविभाग' शब्द का जो प्रयोग किया है, वह बड़ी सूझ-बूझ के साथ किया है। दान में समत्वभाव, समता और निस्पृहता की अन्तरधारा बहती रहे यह आचार्यों का अभिष्ट रहा है जो संसार के अन्य चिन्तकों से कुछ विशिष्टता रखता है। देना 'दान' है, किन्तु दान 'व्रत' या 'धर्म' तब बनता है जब देनेवाले का हृदय निस्पृह, फलाशा से रहित और अहंकार शून्य होकर लेनेवाले के प्रति आदर, श्रद्धा और सद्भाव से परिपूर्ण हो। सद्भाव तथा फलाशा-मुक्त दान को ही 'अतिथिसंविभागवत' कहा गया है। वैचारिक समता, आत्मौपम्यभाव एवं उदारता को आचार रूप मे परिणत करने का माध्यम दान का सूचक बारहवा व्रत है। इसीलिए शास्त्रकारों ने दान को सर्वगुण संग्राहक या सर्वार्थ साधक कहा है - . "यदि मनुष्य के पास तीनों लोकों को वशीभूत करने के लिए अद्वितीय वशीकरण मंत्र के समान दान और व्रतादि से उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौन-से गुण हैं, जो उसके वश में न हो सकें तथा वह कौन-सी विभूति है, जो उसके अधीन न हो, अर्थात् धर्मात्मा एवं दान-परायण के लिए सब प्रकार के गुण, उत्तम सुख और अनुपम विभूति भी उसे स्वयमेव प्राप्त हो जाती है।" कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने दान, उदारता और धर्मदलाली द्वारा ही आगामी जन्म में तीर्थंकरत्व प्राप्त कर लिया। वर्ष भर तक अविच्छिन्न रूप से दानधारा बहाने के कारण ही तीर्थंकर उत्तम विभूति प्राप्त कर पाते हैं। तीर्थंकर से बढ़कर कौन-सी समृद्धि है ? वह तीर्थंकरत्व सेवा रूप दान के द्वारा ही प्राप्त होता है। १. किं ते गुणाः किमिह तत्सुखमस्ति लोके, सा किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति । दानव्रतादिजनितो यदि मानवस्य, धर्मो जगतत्रयवशीकरणैकमंत्राः ॥१०॥ – पद्मनन्दिपंचविंशती
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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