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________________ ११२ दान : अमृतमयी परंपरा सबके लिए सदा खुला बताया गया है - "उसिह फलिहे, अवंगुअदुवारै ।" १ - जो भी अतिथि, अभ्यागत उनके द्वार पर आता, उसका वे हृदय से स्वागत करते थे और आवश्यक वस्तु प्रसन्नता से दे देते थे । देना ही उनके जीवन का प्रधान लक्ष्य होता था। श्रावक के तीन मनोरथों में प्रथम मनोरथ यह है कि "वह दिन मेरे लिए कल्याणकारी व धन्य होगा, जिस दिन मैं अपने परिग्रह को सुपात्र की सेवा में त्याग (दे) कर प्रसन्नता अनुभव करूंगा, ममता के भार से मुक्त बनूंगा। __ प्रत्येक गृहस्थ के लिए सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से दान का विधान करते हैं। रयणसार ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से कहा गया है - "दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे य सावयातेण विणा।" - सुपात्र में चार प्रकार का दान और देव-गुरु शास्त्र की पूजा करना , गृहस्थ श्रावक का मुख्य धर्म है। दान के बिना गृहस्थ श्रावक की शोभा नहीं है। जो इन दोनों को अपना मुख्य धर्म-कर्तव्य मानकर पालन करता है, वही श्रावक है, वही धर्मात्मा है, वही सम्यग्दृष्टि है। गृहस्थ श्रावक के लिए बारहवाँ व्रत इसी उद्देश्य को लेकर नियत किया गया है कि वह भोजन करने से पहले कुछ समय तक किसी सुपात्र, अतिथि, महात्मा या अनुकम्पापात्र व्यक्ति को उसमें से देने की भावना करे । अतिथि (उपर्युक्त) की प्रतीक्षा करे । ___भगवान महावीर के आनन्द, कामदेव, चुलिनीपिता आदि दस प्रमुख गृहस्थ श्रावकों का जीवन उपासक दशांगसूत्र में पढ़ने से यह स्पष्ट फलित हो जाता है कि उनके जीवन में प्रतिदिन दान देने की कितनी उत्कट भावना थी। ___ भगवान महावीर ने गृहस्थ श्रावक को संसार के दुःखितों, पीडितों, भूखों, प्यासों और जरूरतमंदो के साथ सहानुभूति, आत्मीयता, और एकता १. भगवतीसूत्र, श. २, उ. ५
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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