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दान से लाभ
देना भी धर्म में प्रवेश करने का कारण है ।
दान को धर्म का शिलान्यास कह सकते हैं। इस शिलान्यास पर ही धर्म का सुहावना प्रासाद निर्मित हो सकता है । जो व्यक्ति जीवन में धर्म की आराधनासाधना करना चाहते हैं, उन्हें सर्वप्रथम दान को अपनाना आवश्यक होता है I दान धर्म की नींव रखता है । धर्म की बुनियाद पर जो प्रवृत्ति होती है, वह पापकर्म का बन्ध करनेवाली नहीं होती, धर्म की आधारशिला दान के द्वारा ही रखी जा सकती है। जब जीवन में दान की भावना आती है तो वह करुणा, दया, सेवा, सहानुभूति, आत्मीयता आदि के रूप में अहिंसा की भावना को लेकर आती है, दान करते समय अपनी वस्तु का त्याग करके अपने आप पर संयम करना पड़ता है और कई बार दानी को अपनी इच्छाओं का निरोध, अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग एवं कष्ट सहन करना पड़ता है । इस प्रकार अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म का शिलान्यास दान के द्वारा अनायास ही हो जाता है । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में दान को द्रव्य और भाव से स्पष्ट रूप से अहिंसा माना गया है -
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'अतिथिसंविभागव्रत (दान) मे परजीवों का दुःख, पीड़ा, चिन्ता आदि दूर करने के कारण द्रव्य - अहिंसा तो प्रत्यक्ष है ही, रही भाव - अहिंसा, वह भी लोभ - कंषाय के त्याग की अपेक्षा से समझनी चाहिए । ११
५. दान : गृहस्थ-जीवन का सबसे प्रधान गुण
दान श्रावक के जीवन का प्रधान गुण है । कई धर्मग्रन्थों में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है। श्रावक का जीवन केवल तात्त्विक (विचार) दृष्टि से ही उदार न हो, अपितु सक्रिय आचरण की दृष्टि से भी विराट् हो, वह अपने सम्बन्धियों को ही नहीं, जितने भी दीन-दुःखी, अतिथि मिले, सबके लिए उसके घर का द्वार खुला रहे । शास्त्र में तुंगिया नगरी के श्रावकों के घर का द्वार
१. कृतमात्मार्थ मुनये दद्गाति भक्तिमिति भावितस्त्यागः ।
अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यर्हिसैव ॥१७४॥
२. योगशास्त्र, श्राद्धगुणविवरण, धर्मबिन्दु एवं धर्मरत्न में इस बात को स्वीकार किया गया है ।