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दान : अमृतमयी परंपरा एक दिन चित्तसारथी अवसर देखकर प्रदेशीनृप को अश्व परीक्षा के बहाने मुगवन की ओर ले आया । शान्त होकर चित्त और प्रदेशी नप मृगवन में चले गये । वहाँ केशीश्रमण जनता को धर्मोपदेश दे रहे थे। राजा ने घृणादृष्टि से एकबार केशीश्रमण की ओर देखा । परन्तु केशीश्रमण सामान्य सन्त नहीं थे। वे चार ज्ञान के धनी और देशकाल के ज्ञाता थे। केशीश्रमण के संयम और तप के अद्भुत तेज व प्रभाव से तथा चित्त की प्रेरणा से वह केशीश्रमण के चरणों में पहुच गया। उनकी धर्मदेशना सुनकर राजा प्रभावित हुआ । उसने केशीश्रमण से ६ प्रश्न किये, जिनका तर्कपूर्ण और युक्तिसंगत समाधान पाकर वह प्रसन्न हो गया। उसके जीवन में आज यह चमत्कार था। उसकी चिरसंचित शंकाओं का आज मौलिक समाधान हो चुका । जीवन की दिशा बदल गई । उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया और केशीश्रमण को नमस्कार करके प्रस्थान करते समय उसने उनके समक्ष अपनी राज्यश्री के चार विभाग करने का संकल्प किया, उन चार विभागों में से एक विभाग से विराट दानशाला खोली, जहाँ पर जो भी श्रमण, माहण, भिक्षु, पथिक आदि आते, उन्हें वह सहर्ष दान करने लगा।
___ इससे यह प्रतिफलित होता है कि प्रदेशी राजा अमंगल से मंगल, करता से कोमलता और अधर्म से धर्म की ओर मुड़ा, इसमें उसकी दानशील वृत्ति भी परम कारण बनी। प्रदेशी की दानशाला से कई लोग लाभ उठाते थे, अब उसे लोग श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे थे।
इस प्रकार प्रदेशीराजा के लिए दान धर्म का प्रवेश द्वार बन गया ।
एक और दृष्टि से देखें तो भी दान धर्म का प्रवेश द्वार बनता है। धर्म आत्मशुद्धि का साधन है। बुरी वृत्तियों, दुर्व्यसनों या बुराइयों को छोड़े बिना आत्मशुद्धि नहीं हो सकती, इसलिए बुरी वृत्तियों या बुराइयों का दान कर देना, उनके त्याग का संकल्प कर देना भी धर्मरूपी प्रासाद में प्रवेश करने का द्वार बन जाता है। जिस आत्मा की शुद्धि होती है, वही धर्ममार्ग पर चल सकती है। इसलिए धर्ममार्ग पर चलने के लिए बुराइयों या दुर्व्यसनों का दान (त्याग) कर १. "...... एगेणं भागेणं महई महालयं कूडागार सालं करिस्सामि, तत्थणं बहूहिं पुरिसेहि
दिन्नभईभत्त वेयणेहिं विउलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-भिक्खूयाणं पंथिम-पहियाणं पडिलाभेमाणे.....।" - रायप्पसेणिय सुत्तं