SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दान से लाभ १०९ नास्तिक बना हुआ था । वह स्वर्ग-नरक, आत्मा-परमात्मा और धर्म-कर्म को बिलकुल नहीं मानता था । इन सबकों वह धर्म का ढकोसला समझता था । उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे। धर्म क्या है? यह कभी जानने का उसने प्रयत्न ही नहीं किया । वह इतना कठोर और निर्दय था कि प्रजा उससे सदा भयभीत रहती थी। दूसरों को दुःख देना उसके लिए मनोविनोद था। शरीर से अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है, यह उसका दृष्टिकोण था । अभी तक कोई समर्थ पुरुष उसे नहीं मिला था, जो उसके दृष्टिकोण को बदल सके। प्रजाजन प्रदेशी राजा को साक्षात् यमराज समझते थे। श्रावस्ती नृप जितशत्रु प्रदेशी नृप का अभिन्न मित्र था। एक बार प्रदेशी ने अपने अभिन्न मित्र श्रावस्ती नप को एक सुन्दर उपहार देने के लिए अपने विश्वस्त एवं बुद्धिमान मंत्री चित्तसारथी को भेजा, साथ ही वहाँ की राजनैतिक गतिविधि का अध्ययन करने भी। उस समय श्रावस्ती में भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य-परम्परा के समर्थ आचार्य केशी श्रमण पधारे हुए थे । चित्त ने उनकी कल्याणमयी वाणी का लाभ उठाया । चित्त को केशीश्रमण मुनि का प्रवचन सुनकर बहुत आनन्द आया, मानो उसको खोया हुआ धन मिल गया। उसने केशीश्रमण से श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये। ... लौटते समय चित्त ने केशीश्रमण से श्वेताम्बिका पधारने की प्रार्थना की। किन्तु केशीश्रमण प्रदेशी नृप की क्रूरता तथा अधर्मशीलता से भली भांति परिचित थे। उन्हें अपना भय न था, किन्तु धर्म और संघ की अवज्ञा न हो, इसकी उन्हें गहरी चिन्ता थी इसलिये वे मौन रहे। चित्त ने दुबारा प्रार्थना की, फिर भी मौन रहे। तीसरी बार भी जब वे प्रार्थना के उत्तर में मौन रहे तो चित्तसारथी विनम्र एवं सतेज स्वर में बोला - "भंते ! आप किसी प्रकार का विचार न करें, श्वेताम्बिका अवश्य ही पधारें। आपके वहाँ पधारने से राजा, प्रजा तथा सभीको बहुत बड़ा लाभ होगा। धर्म की महती सेवा होगी।" केशीश्रमण विहार करते-करते श्वेताम्बिका पधार गये । और नगरी के उत्तर-पूर्व कोण में जो सुरभित व सुरम्य उपवन - मृगवन था, उसी में वे विराजमान हुए । प्रजाजन उनकी अमृतवाणी का लाभ उठाने लगे। उनकी प्रवचन शैली बहुत ही आकर्षक थी।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy