________________
१०६
दान : अमृतमयी परंपरा
भरी आँखें, मुख पर से झरता वात्सल्य ! यह सब देखते ही सेठ का हृदय करूणार्द्र हो गया। सेठ ने बुढ़िया से वह लोहे का टुकड़ो ले लिया और कहा"माजी ! जाओ, उस पट्टे पर बैठ जाओ।" किन्तु बुढ़िया का साहस न हुआ वह शान्त खड़ी-खड़ी तमाशा देखती रही । मन में अन्तर्द्वन्द्व चलने लगा । सेठ ने मुनीम को बुलाकर, वह लोहे का टुकड़ा तुलवाया तो पूरे २५ तोले का निकला। सेठ विचार में पडा- 'मेघ आकाश में न हों तो वर्षा नहीं होती, पर नदी के सूख जाने पर भी तृषातुर को वहां गड्ढा खोदने पर थोड़ा-सा पानी मिल ही जाता है। चाहे मेरी स्थिति आज तंग है, फिर भी मुझे इसे अल्प में से अल्प देना ही चाहिए।" कहा भी है -
"चीडी चोंच भर ले गई, नदी न घटियो नीर ।"
यह बेचारी तृषातुर है । यद्यपि मेरी स्थिति आज तंग है, तथापि यह बुढ़िया मेरे यहाँ से खाली हाथ लौटे, यह मेरे लिए शोभास्पद नहीं है। इससे तो धर्मी और धर्म दोनों बदनाम होंगे । अतः सेठ ने मुनिम से कहा- "इस लोहे के बदले उस बुढ़िया को २५ तोला सोना तोल दो।"
सोने का टुकड़ा लेकर घर की ओर जाती हुई सतारा बुढ़िया की आँखों में हर्षाश्रु बह रहे थे। वह बुढ़िया मन ही मन आशीर्वाद दे रही थी – “अल्लाह इन्हें बरकत दे ! लोग कहते हैं, उसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। सचमुच सेठ पारसमणि हैं।"
कहते हैं, इस घटना के बाद कुछ ही महीनों में सेठ की सम्पत्ति का सूरज फिर से लाख-लाख किरणों से जगमगा उठा।
कभी-कभी दान का प्रत्यक्ष चमत्कार भी देखने को मिल जाता है -
सायला (सौराष्ट्र) में एक लाला भक्त बहुत प्रसिद्ध हो चुका है। वि.सं. १८५६ में लाला भक्त का जन्म सींधाबंदर में हुआ । जब लाला भक्त ७ साल का बालक था तभी एक दिन उसके पिताजी उसे दुकान पर बिठाकर कहीं बाहर चले गए । इसी दौरान १५ संन्यासियों को ठंड से काँपते हए लाला भक्त ने देखा। लाला संस्कारी जीव था। उसे संन्यासियों को सर्दी से ठिठुरते देखकर दया आई, तुरन्त उसने १५ गर्म कबल दुकान से निकालकर प्रत्येक साधु को