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दान : अमृतमयी परंपरा
दान की मनमोहक महक उठती है ।
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एक जगह बहुत-से विद्वान इकट्ठे हो रहे थे । वहाँ एक चर्चा छिड़ गई कि “सच्चा अमृत कहाँ है ?" एक विद्वान बोला - "समुद्र में । समुद्र मन्थन करके देवों ने अमृत निकाला था।" दूसरा बोला - "अजी ! समुद्र तो खारा है, उसमें अमृत नहीं हो सकता । अमृत तो चन्द्रमा में है । जिस अमृत से सभी औषधियाँ पोषित होती है" तीसरा कहने लगा " चन्द्रमा तो घटता-बढ़ता है । इसलिए वह तो क्षय रोग वाला है। उसमें अमृत नहीं हो सकता ।" चौथा बोला "अमृत तो नारी के मुख में है ।" पाँचवाँ कहने लगा – “यह असंभव है, नारी का मुँह तो गंदा है। अमृत तो नागलोक में है। क्योंकि अर्जुन को जीवित करने के लिए नागलोक से अमृत लाया गया था।" छठ्ठा बोला - "सर्पों के मुँह में अमृत होता होगा, भला ! वहाँ तो विष है । अमृत तो स्वर्ग में है । क्योंकि अमृत पीकर ही देव अमर कहलाते हैं ।" सातवाँ बोला, जो धार्मिक था "भाई ! अमृत तो भावनापूर्वक दान देने में है । क्योंकि भावपूर्वक दिया गया दान मानव को जिला देता है, रोते हुए को हँसा देता है, रोगी को स्वस्थ बना देता है। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि विद्वानों की सभा ने काफी चर्चा के बाद दान को ही सर्वसम्मति से अमृत घोषित किया ।"
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सच्चा अमरत्व तो सृष्टि के पीड़ित मानवों के कल्याणार्थ अपने आपको समर्पित कर देने, अपना सर्वस्व दीन-दुखियों, अभावग्रस्तों को दान कर देने और अपनी प्रिय वस्तु परहितार्थ अर्पण कर देने वाले को मिलता है । इस दानरूपी अमृत से ही सच्चा अमरत्व प्राप्त कर सकते हैं 1
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ऋग्वेद में ऋषियों ने एक स्वर से इसी बात का समर्थन किया है। "दक्षिणावन्तोऽमृतं भजन्ते ।"
- दान देने वाले और दान लेने वाले दोनों अमृत को प्राप्त करते हैं ।
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दान वास्तव में मानव-जीवन के लिए अमृत है । जब मनुष्य भूख से पीड़ित हो, प्यास से छटपटा रहा हो, बाढ़ या भूकम्प आदि प्राकृतिक प्रकोपों से व्यथित हो, उस समय उसे मिला हुआ दान क्या अमृत से कम है ? वह दान मानव को अमृत की तरह संजीवित कर देता है ।