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________________ दान : अमृतमयी परंपरा गोस्वामी समझ रहा था। उनके सेवक तानाजी से उसने पूछा तो उन्होंने सारा गुप्त हाल बता दिया । ब्राह्मण सुनते ही मूर्छित हो गया। होश में आने पर रोने लगा"शिवाजी मेरे अतिथि थे । हाय ! मुझ अभागे की दरिद्रता दूर करने के लिए उन्होंने अपने आपको शत्रु के हाथों में सौंप दिया, एक तरह से मृत्यु के मुख में स्वयं को दे दिया।" ब्राह्मण तानाजी से बार-बार हठ करने लगा कि : वे दो हजार मुहरें ले लें और उनसे किसी तरह शिवाजी को छुड़ा लावें।" ताना जी ने ब्राह्मण को आश्वासन दिया कि "वह बिना ही कुछ दिये, शिवाजी को छुड़ा लाएगा।" जो उत्तम प्रकार का दयालु व्यक्ति होता है, उसी में इस प्रकार का गुण होता है। दान के अन्य लक्षणः जैन दृष्टि से - कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्राचार्यजी ने दान का लक्षण किया है "दानं पात्रेषु द्रव्य विश्राणनम् ।" १. इस लक्षण के अनुसार जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट जो भी दान के सुपात्र एवं पात्र हैं, उन्हें अपनी वस्तु देना दान कहलाता है। इसी प्रकार का एक लक्षण आचार्य हरिभद्र ने किया है - “दानं सर्वेष्वेतेषु स्वस्याहारादेरतिसर्जन लक्षणम् ।" २ - सभी प्रकार के इन पात्रों में अपने आहार आदि का त्याग करना - देना, दान है। यह लक्षण भी पूर्वोक्त लक्षण से मिलता-जुलता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र की टीका एवं प्रवचनसारोद्धार में दान का लक्षण इस प्रकार किया है - "लब्धस्यान्नस्य ग्लानादिभ्यो वितरणे ।" – प्राप्त अन्न को ग्लान, रोगी, वृद्ध, अपाहिज और निर्धनों में वितरण करना दान है। दान के बारे में पाश्चात्य विद्वानों ने भी अपने मत प्रकट किये । कुछ के उदाहरण हम प्रस्तुत करते हैं - १. योगशास्त्र स्वोपज्ञ विवरण २-३१ . २. तत्त्वार्थसूत्र हारिभद्रीया वृत्ति ६/१३
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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