SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छअनुस्पतिनिद्देसो विहरतं केनस्स विहारेन विहरितब्बं" (अं० नि० ४/४४७ ) ति पुच्छतो विहारदस्सनत्थं कथिता । ५२. एवं सन्ते पि परिसुद्धसीलादिगुणसमन्नागतेन पुथुज्जनेता पि मनसि कातब्बा। अनुस्सववसेना पि बुद्धादीनं गुणे अनुस्सरतो चित्तं पसीदति येव । यस्सानुभावेन नीवरणानि विक्खम्भेत्वा उळारपामोज्जो विपस्सनं आरभित्वा अरहत्तं येव सच्छिकरेय्य । कटकन्धकारवासी फुस्सदेवत्थेरो विय । सो किरायस्मा मारेन निम्मितं बुद्धरूपं दिस्वा 'अयं ताव सरागदोसमोहो एवं सोभति कथं नु खो भगवान सोभति ? सो हि सब्बसो वीतरागदोसमोहो' ति बुद्धारम्मणं पीतिं पटिलभित्वा विपस्सनं वड्ढेत्वा अरहत्तं पापुणी ति ॥ इति साधुजनपामोज्जत्थाय कते विसुद्धिमग्गे समाधिभावनाधिकारे छअनुस्सतिनिद्देसो नाम सत्तमो परिच्छेदो ॥ ४९ "1 इसलिये...' ' - इस प्रकार आर्यश्रावक के समान " भन्ते! नाना प्रकार की साधना वाले हमलोगों को कैसे साधना करना चाहिये ?" (अं० नि० ४/४४७) ऐसा पूछे जाने पर साधना को दरसाने के लिये (अनुस्मृतियाँ) बतलायी गयी हैं । ५२. ऐसा (अर्थात् भिक्षु-जीवन में ही अनुस्मृतियों के अभ्यास की विशेष सार्थकता ) होने पर भी परिशुद्ध शील आदि गुणों से युक्त पृथग्जन भी ( उनमें ) मन लगा सकता है; क्योंकि चाहे वह (धार्मिक प्रशिक्षण प्राप्त किये विना ही) कहीं से सुन सुनाकर भी बुद्ध के गुणों का अनुस्मरण करे तो भी चित्त प्रसन्न होता ही है। जिसके कारण नीवरण शान्त हो जाते हैं। अत्यधिक प्रमुदित होकर वह विपश्यना का आरम्भ कर, कटकन्धकारवासी फुस्सदेव स्थविर के समान अर्हत्त्व का भी साक्षात्कार कर लेता है । उस आयुष्मान् ने मार द्वारा निर्मित बुद्ध के रूप को देखकर 'जब यह राग द्वेष मोह युक्त मार (बुद्ध के रूप में) ऐसा शोभित हो रहा है, तब भला भगवान् क्यों न शोभित होते होंगे, जो कि राग-द्वेष- मोह से सर्वथा रहित हैं' - इस प्रकार बुद्ध के प्रति प्रीति प्राप्त कर, विपश्यना का वर्धन कर अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया था । साधुजनों के प्रमोदार्थ रचित विसुद्धिमग्ग के समाधिभावनाधिकार में षडनुस्मृतिनिर्देश नामक सप्तम परिच्छेद समाप्त ॥
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy