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________________ छअनुस्सतिनिद्देसो तस्मा हवे अप्पमादं कयिराथ सुमेधसो। एवं महानुभावाय चागानुस्सतिया सदा ति॥ __इदं चागानुस्सतियं वित्थारकथामुखं ॥ ६. देवतानुस्सतिकथा ४५. देवतानुस्सतिं भावेतुकामेन पन अरियमग्गवसेन समुदागतेहि सद्धादीहि गुणेहि समन्त्रागतेन भवितब्बं । ततो रहोगतेन पटिसल्लानेन "सन्ति देवा चातुमहाराजिका, सन्ति देवा तावतिंसा, यामा, तुसिता, निम्मानरतिनो, परनिम्मितवसवत्तिनो, सन्ति देवा ब्रह्मकायिका, सन्ति देवा ततुत्तरि, यथारूपाय सद्धाय समन्नागता ता देवता इतो चुता तत्थ उपपन्ना, मव्हं पि तथारूपा सद्धा संविज्जति। यथारूपेन सीलेन...यथारूपेन सुतेन...यथारूपेन चागेन... यथारूपाय पञाय समन्नागता ता देवता इतो चुता तत्थ उपपन्ना, मय्हं पि तथारूपा पञ्जा संविज्जती" (अं नि० ३/१२) ति एवं देवता सक्खिट्ठाने ठपेत्वा अत्तनो सद्धादिगुणा अनुस्सरितब्बा। . ४६. सुत्ते पन-"यस्मि, महानाम, समये अरियसावको अत्तनो च तासं च देवतानं सद्धं च सीलं च सुतं च चागं च पञ्खं च अनुस्सरति, नेवस्स तस्मि समये रागपरियुट्टितं चित्तं होती" (अं० नि० ३/१२) ति वुत्तं। किञ्चापि वुत्तं? अथ खो तं सक्खिट्टाने ठपेतब्बदेवतानं अत्तनो सद्धादीहि समानगुणदीपनत्थं वुत्तं ति वेदितब्। अट्ठकथायं हि "देवता सक्खिट्ठाने ठपेत्वा अत्तनो गुणे अनुस्सरती" ति दळ्हं कत्वा वुत्तं। को प्रमुखता देता है। वह मैत्रीभावना के अनुरूप कार्य करने वाला, निर्भीक, प्रीति-प्रमोद की अधिकता रखने वाला होता है। इसलिये ऐसे महान् गुणों वाली त्यागानुस्मृति में रत बुद्धिमान् भिक्षु सदा प्रमादरहित रहे। यह त्यागानुस्मृति की विस्तृत व्याख्या है। ६. देवतानुस्मृति ४५. देवतानुस्मृति की भावना के अभिलाषी को आर्य-मार्ग (के अनुसरण) से उत्पन्न होने वाले श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होना चाहिये। तत्पश्चात् एकान्त में एकाग्रचित्त होकर, देवता को साक्षी मानते हुए इस प्रकार अपने श्रद्धा आदि गुणों का बार बार स्मरण करना चाहिये"चातुर्महाराजिक (लोक) के देवता है, तावतिंस (त्रायस्त्रिंश) के देवता हैं, याम, तुषित, निर्माणरति, परनिर्मित वशवर्ती, ब्रह्मकायिक देवता हैं, उनसे उच्चतर देवता भी हैं। वे देवता जिस प्रकार की श्रद्धा से युक्त होकर यहाँ (मृत्युलोक में) मर कर वहाँ (देवलोकों में) उत्पन्न हुए, उसी प्रकार की श्रद्धा मुझमें भी है। जैसे शील...श्रुत...त्याग...जैसी प्रज्ञा से युक्त होकर वे देवता यहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुए, वैसी प्रज्ञा मुझमें भी है" (अं० नि० ३/१२)। “ ४६. यद्यपि सूत्र में-"महानाम, जिस समय आर्यश्रावक अपनी और उन देवताओं की श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याग तथा प्रज्ञा का अनुस्मरण करता है, उस समय उसका चित्त राग से क्षुब्ध नहीं होता।" ऐसा कहा गया है, तथापि यह कथन साक्षी के स्थान पर रखे जाने वाले उन देवताओं
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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