SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ विसुद्धिमग्गो ४३. मुत्तचागो ति। विसट्ठचागो। पयतपाणी ति। परिसुद्धहत्थो। सक्कच्वं सहत्था देय्यधम्मं दातुं सदा धोतहत्थो येवा ति वुत्तं होति। वोस्सग्गरतो ति। वोस्सज्जनं वोस्सगो, . परिच्चागो ति अत्थो। तस्मि वोस्सग्गे सतताभियोगवसेन रतो ति वोस्सग्गरतो। याचयोगो ति। यं यं परे याचन्ति, तस्स तस्स दानतो याचनयोगो ति अत्थो। याजयोगो ति पि पाठो। यजनसङ्घातेन याजेन युत्तो ति अत्थो। दानसंविभागरतो ति। दाने च संविभागे च रतो। 'अहं हि दानं च देमि, अत्तना परिभुञ्जितब्बतो पि च संविभागं करोमि, एत्थेव चस्मि उभये रतो' ति एवं अनुस्सरती ति अत्थो। ४४. तस्सेवं विगतमलमच्छेरतादिगुणवसेन अत्तनो चागं अनुस्सरतो "नेघ तस्मि समये रागपरियुट्टितं चित्तं होति न दोस...पे०...न मोहपरियुट्टितं चित्तं होति। उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं होति चागं आरब्भा" (अं० नि० ३/११) ति पुरिमनयेनेव विक्खम्भितनीवरणस्स एकक्खणे झानङ्गानि उप्पज्जन्ति। चागगुणानं पन गम्भीरताय नानप्पकारचागगुणानुस्सरणाधिमुत्तताय वा अप्पनं अप्पत्वा उपचारप्पत्तमेव झानं होति। तदेतं चागगुणानुस्सरणवसेन उप्पन्नत्ता चागानुस्सतिच्येव सङ्कं गच्छति। ___ इमं च पन चागानुस्सतिं अनुयुत्तो भिक्खु भिय्योसो मत्ताय चागाधिमुत्तो होति, अलोभज्झासयो, मेत्ताय अनुलोमकारी, विसारदो, पीतिपामोज्जबहुलो, उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो पन सुगतिपरायनो होति। द्वारा निश्रय विहार (दैनिक कर्मस्थान) के विषय में पूछे जाने पर निश्रय विहार का निर्देश करते हुए अगारं अज्झावसामि (घर में रहता हूँ) कहा गया है। वहाँ ('राग आदि को) अभिभूत कर रहता हूँ'- यह अर्थ है। ४३. मुत्तचागो-उन्मुक्त भाव से दान देने वाला। पयतपाणि-परिशुद्धहस्त। अर्थात् . सत्कारपूर्वक अपने हाथों से देय वस्तु को देने के लिए सदा हाथ धोये हुए (तत्पर)। वोस्सगरतो-अवसर्जन ही अवसर्ग है, अर्थात् परित्याग। उस अवसर्ग में सदा रत-अवसर्गरत। याचयोगो-अर्थात् जिस जिस को दूसरे माँगते हैं, उस उस को देने से याच्या किये जाने योग्य। ' याजयोग भी पाठ है, अर्थात् यजनसंज्ञक याज से युक्त। दानसंविभागरतो-देने में, बाँटने में लगा हुआ। 'मैं दान देता हूँ, स्वयं के उपभोग्य को भी (दूसरों में) बाँट देता हूँ, तथा इन्हीं दोनों में लगा हुआ हूँ'-इस प्रकार अनुस्मरण करता है-यह अर्थ है। ४४जब वह 'मात्सर्य-मल से रहित' आदि गुणों के अनुसार अपने त्याग का बारम्बार स्मरण करता है, तब "उस समय चित्त न तो राग से क्षुब्ध होता है, न द्वेष...पूर्ववत्...न मोह से क्षुब्ध होता है। उस समय त्याग के प्रति चित्त की गति सीधी-सरल ही होती है" (अं० नि० ३/११)-इस प्रकार पूर्वविधि के अनुसार ही, शान्त नीवरणों वाले (योगी) को एक क्षण में ध्यानाङ्ग उत्पन्न होते हैं। किन्तु त्याग के गुणों की गम्भीरता या नाना प्रकार के त्याग गुणों के अनुस्मरण में रुचि होने के कारण, अर्पणा प्राप्त नहीं होती, उपचारध्यान ही प्राप्त होता है। वह (ध्यान) भी त्याग के गुणों के अनुस्मरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने से 'त्यागानुस्मृति' कहा जाता है। इस त्यागानुस्मृति में लगा हुआ भिक्षु त्याग के प्रति और भी अधिक रुचि रखता है, अलोभ
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy