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विसुद्धिमग्गो
३. सङ्घानुस्सतिकथा
२६. सङ्घानुस्सतिं भावेतुकामेना पि रहोगतेन पटिसल्लीनेन "सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावसङ्घो, जायप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, यदिदं चत्तारिपुरिसयुगानि अट्ठ पुरिसपुग्गला - एस भगवतो सावकसङ्घो आहुनेय्यो, पाहुनेय्यो, दक्खिणेय्यों, अञ्जलिकरणीयो, अनुत्तरं पुञ्ञक्खेत्तं लोकस्सा" (अ० नि० ३/४० ) ति एवं अरियसङ्घगुणा अनुस्सरितब्बा ।
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२७. तत्थ सुप्पटिपन्नो ति । सुट्रु पष्टिपन्नो । सम्मापटिपदं अनिवत्तिपटिपदं अनुलोमपटिपदं अपच्चनीकपटिपदं धम्मानुधम्मपटिपदं पटिपन्नो ति वुत्तं होति । भगवतो ओवादानुसासनिं सक्कच्वं सुणन्ती ति सावका । सावकानं सङ्घो सावकसङ्घो, सीलदिट्ठिसामञ्ञताय सङ्घातभावं आपनो सावकसमूहो ति अत्थो । यस्मा पन सा सम्मापटिपदा उजु अवङ्का अकुटिला अजिम्हा, अरियो च जायो' ति पि वुच्चति, अनुच्छविकत्ता च सामीची ति पिस गता । तस्मा तं पटिपन्नो अरियसङ्घो उजुप्पटिपन्नो जयप्पटिपन्नो सामीचिप्पटिपन्न तिपि वृत्तो ।
एत्थ च ये मग्गट्ठा, ते सम्मापटिपत्तिसमङ्गिताय सुप्पटिपन्ना । ये फलट्ठा, ते सम्मापटिपदाय अधिगन्तब्बस्स अधिगतत्ता अतीतं पटिपदं सन्धाय सुप्पटिपन्ना ति वेदितब्बा । ३. सङ्घानुस्मृति
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२६. सङ्घानुस्मृति - भावना के अभिलाषी को भी एकान्त में जाकर, एकाग्रचित्त होकर, आर्यसङ्घ के गुणों का यों अनुस्मरण करना चाहिये - " भगवान् का श्रावकसङ्घ श्रेष्ठमार्ग पर चल रहा है, भगवान् ... पूर्ववत्... सीधे मार्ग पर चल रहा है, ... पूर्ववत्... उचितमार्ग पर चल रहा है, यह जो पुरुषों के चार जोड़े (युगल) अर्थात् आठ पुरुषं पुद्गल हैं - यह भगवान् का श्रावकसङ्घ है (जो कि) आह्वनीय (आह्वान करने योग्य) है, पाहुन बनाने, दक्षिणा देने एवं प्रणाम करने योग्य है तथा लोक के लिये अनुत्तर पुण्य-क्षेत्र है ।"
२७. सुप्पटिपन्न (सुप्रतिपन्न, श्रेष्ठ मार्ग पर चलने वाला ) - सुष्ठु ( भलीभाँति ) प्रतिपन्न । अर्थात् (सङ्घ) सम्यक् प्रतिपदा ( श्रेष्ठ मार्ग) में (संसार की ओर ) न लौटने वाले, (सत्य के) अनुकूल, विरोधरहित, धर्म द्वारा शासित मार्ग में प्रतिपन्न है । भगवान् के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनते हैं, अतः श्रावक हैं। श्रावकों का सङ्घ सावकसङ्घ, अर्थात् शील और (सम्यक् ) दृष्टि के विषय में समानता रखने से एक साथ रहने वाले श्रावकों का समूह। क्योंकि वह सम्यक्प्रतिपदा सीधा, छल-कपट से दूर, अकुटिल, अविकृत, आर्य तथा न्याय ( या ज्ञेय) भी कहलाती है, (निर्वाण के) अनुरूप होने से समीचीन भी कहलाती है, अतः उसमें प्रतिपन्न आर्य सङ्घ भी 'उजुप्पटिपन्नो ञयप्पटिपन्नो सामिचिप्पटिपन्नो' कहा जाता है।
यहाँ, जो लोग मार्ग पर चल रहे हैं, वे सम्यक् प्रतिपत्ति से युक्त होने के कारण सुप्रतिपन्न हैं। जो फल प्राप्त कर चुके हैं, उन्होंने क्योंकि सम्यक् प्रतिपदा द्वारा प्राप्तव्य को प्राप्त किया है, अतः पूर्व प्रतिपदा के सन्दर्भ में सुप्रतिपन्न हैं- ऐसा जानना चाहिये ।
१. अपण्णकभावेन जायति कमति निब्बानं, तं वा जायति पटिविज्झीयति एतेना ति आयो ।