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________________ छअनुस्सतिनिद्देसो होति धम्मं आरब्भा" (अं० नि० ३/१०) ति पुरिमनयेनेव' विक्खम्भितनीवरणस्य एकक्खणे झानङ्गानि उप्पज्जन्ति । धम्मगुणानं पन गम्भीरताय नानप्पकारगुणानुस्सरणाधिमुत्तताय वा अप्पनं अप्पत्वा उपचारप्पत्तमेव झानं होति । तदेतं धम्मगुणानुस्सरणवसेन उप्पन्नत्ता धम्मानुस्सतिच्चेव सङ्कं गच्छति। . इमं च पन धम्मानुस्सतिं अनुयुत्तो भिक्खु एवं ओपनेय्यिकस्स धम्मस्स देसेतारं इमिना पङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्सामि, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता ति एवं धम्मगुणदस्सनेनेव सत्थरि सगारवो होति सप्पतिस्सो। धम्मे गरुचित्तीकारो सद्धादिवेपुल्लं अधिगच्छति, पीतिपामोजबहुलो होति, भयभेरवसहो, दुक्खाधिवासनसमत्थो, धम्मेन संवाससलं पटिलभति, धम्मगुणानुस्सतिया अज्झावुत्थं चस्स सरीरं पि चेतियघरमिव पूजारहं होति, अनुत्तरधम्माधिगमाय चित्तं नमति, वीतिक्कमितब्बवत्थुसमायोगे चस्स धम्मसुधम्मतं समनुस्सरतो हिरोतप्पं पच्चुपट्ठाति। उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो पन सुगतिपरायनो होति। तस्मा हवे. अप्पमादं कयिराथ सुमेधसो। एवं महानुभावाय धम्मानुस्सतिया सदा ति॥ इदं धम्मानुस्सतियं वित्थारकथामुखं॥ समय उसका चित्त न तो राग से क्षुब्ध होता है, न द्वेष से...पूर्ववत्...न मोह से क्षुब्ध होता है" (अं० नि० ३/१०)-इस पूर्व विधि के अनुसार ही, जिसके नीवरण शान्त हो चुके हैं, ऐसे (योगी) को एक ही क्षण में ध्यानाङ्ग उत्पन्न होते हैं। किन्तु धर्म-गुणों के गाम्भीर्य या विविध गुणों के अनुस्मरण के प्रति उत्कण्ठा होने के कारण, अर्पणा प्राप्त नहीं होती, केवल उपचार ध्यान ही प्राप्त होता है। और उसे धर्म-गुणों के अनुस्मरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने से 'धर्मानुस्मृति' ही कहा जाता है। इस धर्मानुस्मृति में लगा हुआ भिक्षु 'इस प्रकार ओपनेय्यिक धर्म की देशना करने वाले, इन अङ्गों से युक्त ऐसे शास्ता से पहले कभी नहीं मिला, न उन भगवान् के अतिरिक्त (ऐसे गुणी) किसी अन्य से (मिला)'-यों धर्म के गुणों को देखने से ही शास्ता के प्रति गौरव तथा प्रतिष्ठा से युक्त होता है। उसमें धर्म के प्रति बहुत अधिक आदर भाव और श्रद्धा आदि होते हैं। उसमें प्रीति-प्रमोद की बहुलता होती है। भय की भीषणता को सहने वाला ही दुःख सहने में समर्थ होता है। उसे अनुभव होता है कि मानो वह धर्म के साथ रह रहा हो। उसका शरीर भी, जिसमें धर्म-गुणों की अनुस्मृति रहती है, चैत्य-गृह के समान पूज्य होता है। उसकी अनुत्तर धर्म की प्राप्ति के प्रति रुचि रहती है। (शिक्षापदों के) उल्लङ्घन की परिस्थिति आ पड़ने पर, धर्म की सुधर्मता की स्मृति बनी रहने से उसे लज्जा-संकोच का अनुभव होता है। भले ही उत्तर (मार्ग-फल) की प्राप्ति न हो, किन्तु उसकी सुगति (तो अवश्य) होती है। ___इसलिये ऐसे महान् गुणों वाली धर्मानुस्मृति के विषय में बुद्धिमान् को सदा निष्प्रमाद रहना चाहिये॥ यह धर्मानुस्मृति की विस्तृत व्याख्या है। १. बुद्धानुस्सतियं वुत्तनयेन।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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