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________________ छअनुस्सतिनिद्देसो लोके समारके...पे०...सदेवमनुस्साय पजाय अत्तना सीलसम्पन्नतरं" ति वित्थारो। एवं अग्गप्पसादसुत्तादीनि (अं नि० २/४९) "न मे आचरियो अत्थी" (म० व० वि० पि० ३/१४) ति आदिका गाथायो' च वित्थारेतब्बा। १०. पुरिसदम्मे सारेती ति पुरिसदम्मसारथि। दमेति विनेती ति वुत्तं होति। तत्थ पुरिसदम्मा ति अदन्ता दमेतुं युत्ता तिरच्छानपुरिसा पि मनुस्सपुरिसा पि अमनुस्सपुरिसा पि। तथा हि भगवता तिरच्छानपुरिसा पि अपलालो नागराजा, चूळोदरो, महोदरो, अग्गिसिखो, धूमसिखो, आरवाळो नागराजा, धनपालको हत्थी ति एवमादयो दमिता, निब्बिसा कता, सरणेसु च सीलेसु च पतिट्ठापिता। मनुस्सपुरिसा पि सच्चक-निगण्ठपुत्त-अम्बट्ठमाणवपाोक्खरसाति-सोणदण्ड-कूटदन्तादयो, अमनुस्सपुरिसा पि आळवक-सूचिलोम-यक्खसक्कदेवराजादयो दमिता, विनीता विचित्रेहि विनयनूपायेहि। “अहं खो, केसि, पुरिसदम्मे सण्हेन पि विनेमि, फरुसेन पि विनेमि, सोहफरुसेन पि विनेमी" (अ० नि०. २/१५५) ति इदं चेत्थ सुत्तं वित्थारेतब्बं । । - अपि च भगवा विसुद्धसीलादीनं पठमज्झानादीनि सोतापन्नादीनं च उत्तरिमग्गपटिपदं आचिक्खन्तो दन्ते पि दमेति येव। . जैसा कि कहा गया है-"मैं देवताओंसहित, मारसहित लोक में, देवताओं सहित मानव प्रजा में स्वयं से अधिक शीलसम्पन्न किसी को नहीं देखता हूँ"-इस प्रकार व्याख्या है। ऐसे ही, अग्गप्पसादसुत्त (अं० नि० २/४९) आदि एवं "मेरा कोई आचार्य नहीं है" (म० व० वि० पि० ३/१४) आदि गाथाओं की व्याख्या भी इस प्रसङ्ग में की जानी चाहिये। १०. ये दमन करने योग्य (=विनेय) पुरुषों को (सन्मार्ग पर) चलाते हैं, इसलिये . पुरिसदम्मसारथि हैं। दमन करते हैं, अर्थात् विनीत करते हैं। यहाँ नर पशुओं को भी, नर मानवों को भी, अमनुष्यों में ऐसे नरों को भी जो दमित नहीं किये गये हैं, किन्तु दमित किये जाने योग्य हैं, "पुरुषदम्य' कहते हैं। क्योंकि भगवान् ने अपलाल, नागराज, चूड़ोदर, महोदर, अग्निशिख, धूमशिख, आरवाल, नागराज, धनपालक हाथी आदि नरपशुओं का भी दमन किया, (क्लेशरूपी) विष से रहित किया, शरण और शील में प्रतिष्ठित किया। विनीत करने के विचित्र उपायों से सच्चक, निगण्ठपुत्त, अम्बट्ठ माणव, पोक्खरसाति, सोणदण्ड, कूटदन्त आदि नर मानवों को भी, एवं आड़वक, सूचिलोम, यक्ष, शक्रदेवराज आदि को भी दमित किया, विनीत किया। "केशि! मैं दमन करने योग्य पुरुषों का मृदुता से भी; कठोरता से भी; मृदुता और कठोरता दोनों से भी, दमन करता हूँ" (अं० नि० २/१५५)-इस सुत्त को यहाँ विस्तार से बतलाना चाहिये। एवं भगवान् विशुद्ध शीलवानों के लिये प्रथम ध्यान आदि एवं स्रोतआपनों के लिये उत्तरमार्गप्रतिपदा (=उच्चतर मार्ग) बतलाते हुए, दमितों का भी दमन करते ही हैं। १. आदिका गाथायो ति। "अहं हि अरहा लोके अहं सत्था अनुत्तरो। एकोम्हि सम्मासम्बद्धो सीतिभतोस्मि निब्बतो॥ दन्तो दमयतं सेट्ठो सन्तो समयतं इसि। मुत्तो मोचयतं अग्गो तिण्णो तारयतं वरो"। ति एवमादिका गाथायो वित्थारेतब्बा।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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