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________________ १२ विसुद्धिमग्गो वेदितब्बा, अठ्ठ अम्बट्ठसुत्ते (दी० नि० १/९५)। तत्र हि विपस्सनााणेन मनोमयिद्धिया च सह छ अभिज्ञा परिग्गहेत्वा अट्ठ विज्जा वुत्ता। चरणं ति सीलसंवरो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता, भोजने मत्तञ्जता, जागरियानुयोगो, सत्त सद्धम्मा, चत्तारि रूपावचरज्झानानी ति इमे पन्नरस धम्मा वेदितब्बा। इमे येव हि पन्नरस धम्मा, यस्मा एतेहि चरति अरियसावको, गच्छति अमतं दिसं, तस्मा चरणं ति वुत्ता । यथाह"इध, महानाम, अरियसावको सीलवा होती" ति सब्बं मज्झिमपण्णासके (म० नि० २/४८०) वुत्तनयेनेव वेदितब्। भगवा इमाहि विजाहि इमिना च चरणेन समन्नागतो, तेन वुच्चति विजाचरणसम्पन्नो ति। तत्थ विज्जासम्पदा भगवतो सब्ब तं पूरेत्वा ठिता, चरणसम्पदा महाकारुणिकतं। सो सब्बञ्जताय सब्बसत्तानं अत्थानत्थं उत्वा महाकारुणिकताय अनत्थं परिवजेत्वा अत्थे नियोजेति, यथा तं विज्जाचरणसम्पन्नो। तेनस्स सावका सुप्पटिपन्ना होन्ति नो दुष्पटिपन्ना, विजाचरणविपन्नानं सावका अत्तन्तपादयो विय। ७. सोभनगमनत्ता, सुन्दरं ठानं गतत्ता, सम्मा गतत्ता, सम्मा च गदत्ता सुगतो। गमनं पि गतं ति वच्चति, तं च भगवतो सोभनं परिसुद्धमनवजं। किं पन तं ति? अरियमग्गो। तेन हेस गमनेन खेमं दिसं असज्जमानो गतो ति सोभनगमनत्ता सुगतो। सुन्दरं चेस ठानं गतो अमतं निब्बानं ति सुन्दरं ठानं गतत्ता पि सुगतो। के अनुसार जानना चाहिये, आठ विद्याओं को अम्बट्ठसुत्त (दी० नि० १/९५) के अनुसार। वहाँ विपश्यना-ज्ञान और मनोमय ऋद्धि के साथ छह अभिज्ञाओं का ग्रहण कर (कुल) आठ विद्याएं बतलायी गयी हैं। चरणं-शील-संवर, जितेन्द्रियता, भोजन में मात्रा का ज्ञान, जागरणशील होना, सात सद्धर्म (= श्रद्धा, ह्री, अपत्राप्य, बहुश्रुत होना, वीर्य, स्मृति, प्रज्ञा), चार रूपावचर ध्यान-इन पन्द्रह धर्म को समझना चाहिये। क्योंकि इन पन्द्रह धर्मों द्वारा आर्यश्रावक विचरण करता है, अमृत (=निर्वाण) की ओर जाता है, इसलिये ये 'चरण' कहे गये हैं। जैसा कि कहा गया है-"महानाम, यहाँ आर्यश्रावक शीलवान् होता है"। यह सब मज्झिमपण्णासक (म० नि० २/४८०) में बतलायी गयी पद्धति से ही समझना चाहिये। भगवान् इन विद्याओं से, इस चरण से समन्वागत हैं, इसलिये विजाचरणसम्पन्न कहे जाते हैं। इनमें, विद्यासम्पदा भगवान् के सर्वज्ञत्व की परिपूर्णता में निहित है, चरण-सम्पदा महाकारुणिक होने में। वे सर्वज्ञता द्वारा सभी सत्त्वों के हिताहित को जानकर, महाकारुणिक होने से अनर्थ से हटाकर अर्थ (=हित) में लगाते हैं.... । इसीलिये उनके श्रावक सुप्रतिपन्न होते हैं, विद्याचरण से रहित (शास्ताओं) के आत्मतापी (=आत्मपीड़क) शिष्यों के समान दुष्प्रतिपन्न नहीं ७. सुन्दरतया गमन करने से, सुन्दर स्थान में गये हुए होने से, एवं सम्यक् वाचन करने से सुगत हैं। 'गमन' जाने को भी कहते हैं; और भगवान् का गमन शोभन, परिशुद्ध, अनवद्य १. सत्त सद्धम्मा नाम-सद्धा, हिरी, ओत्तप्पं, बाहुसच्चं, विरियं, सति, पञ्जा च।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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