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________________ ३५० विसुद्धिमग्गो एतासु हि यदेतं चुतूपपाताणसङ्घातं दिब्बचक्खु, तस्स अनागतंसाणं च यथाकम्मूपगजाणं चा ति द्वे पि परिभण्डाणानि होन्ति। इति इमानि च द्वे इद्धिविधादीनि च पञ्चा ति सत्त अभिजात्राणानि, इधागतानि। इदानि तेसं आरम्मणविभागे असम्मोहत्थं आरम्मणत्तिका वुत्ता ये चत्तारो महेसिना। सत्तनमपि आणानं पवत्तिं तेसु दीपये॥ ___ तत्रायं दीपना-चत्तारो हि आरम्मणत्तिका महेसिना वुत्ता। कतमें चत्तारो? परित्तारम्मणत्तिको, मग्गारम्मणत्तिको, अतीतारम्मणत्तिको, अज्ज्ञत्तारम्मणत्तिको ति। ६४. तत्थ इद्धिविधजाणं परित्त-महग्गत-अतीत-अनागत-पच्चुप्पन्न-अज्झत्तबहिद्धारम्मणवसेन सत्तसु आरम्मणेसु पवत्तति। कथं? तं हि यदा कायं चित्तसन्निस्सितं कत्वा अदिस्समानेन कायेन गन्तुकामो चित्तवसेन कायं परिणामेति, महग्गतचित्ते समोदहति समारोपेति, तदा उपयोगलद्धं आरम्मणं होती ति कत्वा रूपकायारम्मणतो परित्तारम्मणं होति । (१) यदा चित्तं कायसनिस्सितं कत्वा दिस्समानेन कायेन गन्तुकामो कायवसेन चित्तं परिणामेति, पादकज्झानचित्तं रूपकाये समोदहति समारोपेति, तदा उपयोगलद्धं आरम्मणं होती ति कत्वा महग्गतचित्तारम्मणतो महग्गतारम्मणं होति। (२) । यस्मा पन तदेव चित्तं अतीतं निरुद्धमारम्मणं करोति, तस्मा अतीतारम्मणं होति। (३) इनमें, यह जो च्युत्युत्पाद नामक दिव्यचक्षु है, उसके 'अनागत संज्ञान' एवं 'यथाकर्मोपगज्ञान'-ये दो आनुषङ्गिक ज्ञान होते हैं। इस प्रकार ये दो एवं ऋद्धिविध आदि पाँच-ये सात अभिज्ञा ज्ञान यहाँ आये हैं। अब, उनके आलम्बनों के वर्गीकरण के बारे में भ्रम न हो, इसलिये महर्षि ने चार आलम्बन-त्रिक बतलाये हैं। कौन से चार? परिमितालम्बनत्रिक, मार्गालम्बनत्रिक, अतीतालम्बनत्रिक, अध्यात्मालम्बनत्रिक। (दी० १/७१, ७२) ॥ ६४. इनमें, ऋद्धिविध-ज्ञान परिमित, महद्गत, अतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न, अध्यात्म, बाह्य आलम्बन-इन सात आलम्बनों में प्रवृत्त होता है। कैसे? वह काया को चित्त पर आधारित कर अदृश्यमान काया द्वारा जाना चाहता है। उस समय चित्त के रूप में काया को परिणत करता है, महद्गत चित्त में (काय को) रखता है। आरोपित करता है। तब यह मानते हुए कि उपयोगलब्ध (कर्मकारक में पद ही) आलम्बन है, यह परिमित आलम्बन वाला होता है; क्योंकि इसका आलम्बन रूपकाय है। (१) जब चित्त को काया पर आधारित करके दृश्यमान काया द्वारा जाना चाहता है, काया के रूप में चित्त को परिणत करता है, आधारभूत ध्यान चित्त को रूपकाय में रखता है, आरोपित करता है; तब यह मानते हुए कि उपयोग-लब्ध आलम्बन है, यह महद्गत आलम्बन वाला होता है; क्योंकि इसका आलम्बन महद्गत चित्त होता है। (२) किन्तु क्योंकि वही चित्त अतीत, निरुद्ध आलम्बन वाला होता है; अत: अतीत आलम्बन वाला होता है। (३)
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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