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________________ अभिज्ञानिद्देसो ३४९ आणचक्खुस्स आपाथं गच्छति, मंसचक्खना दिस्समानं विय होति, तदा दिब्बचक्ख उप्पन्नं होती ति वेदितब्बं । तदेव चेत्थ रूपदस्सनसमत्थं, न पुब्बभागचित्तानि। ६१. तं पनेतं पुथुजनस्स परिबन्धो होति। कस्मा? सो हि यस्मा यत्थ यत्थ आलोको होतू ति अधिट्ठाति, तं तं पथवीसमुद्दपब्बते विनिविज्झित्वा पि एकालोकं होति । अथस्स तत्थ भयानकानि यक्खरक्खसादिरूपानि पस्सतो भयं उप्पज्जति । येन चित्तविक्खेपं पत्वा झानविब्भन्तको होति, तस्मा रूपदस्सने अप्पमत्तेन भवितब्बं । ६२. तत्रायं दिब्बचक्खुनो उप्पत्तिक्कमो-वुत्तप्पकारमेतं रूपारम्मणं कत्वा मनोद्वारावजने उप्पज्जित्वा निरुद्धे तदेव रूपं आरम्मणं कत्वा चत्तारि पञ्च वा जवनानि उपज्जन्ती ति सब्बं पुरिमनयेनेव वेदितब्बं । इधा पि पुब्बभागचित्तानि सवितक्कसविचारानि कामावचरानि, परियोसाने अत्थसाधकचित्तं चतुत्थज्झानिकं रूपावचरं। तेन सहजातं जाणं सत्तानं चुतूपपाते आणं ति पि दिब्बचक्खुजाणं ति पि वुच्चती ति॥ चुतूपपाताणकथा निट्ठिता ॥ पकिण्णककथा ६३. इति पञ्चक्खन्धविद् पञ्च अभिञा अवोच या नाथो। - ता अत्वा तासु अयं पकिण्णककथा पि विजेय्या॥ पर आश्रित पृथ्वी तल के नीचे, दीवार, प्राकार, पर्वत के पीछे, या दूसरे चकवाल का ज्ञान चक्षु का विषय बनाता है, मांस-चक्षु द्वारा दृश्यमान होने जैसा होता है, तब दिव्यचक्षु का उत्पन्न होना जानना चाहिये। एवं यहाँ वही (दिव्यचक्षु) रूपदर्शन में समर्थ होता है, पहले के (आवर्जन एवं परिकर्म) चित्त नहीं। ६१. किन्तु पृथग्जन के लिये तो यह एक बाधा ही है। क्यों? क्योंकि वह जहाँ जहाँ के बारे में 'आलोक हो जाय' ऐसा अधिष्ठान करता है, वह वह पृथ्वी, समुद्र एव पर्वत को भी भेदकर आलोकमय हो जाता है। तब वहाँ भयानक यक्ष, राक्षस आदि रूपों को देखते हुए उसे भय उत्पन्न होता है, जिससे चित्त विक्षिप्त होता है, ध्यान भङ्ग हो जाता है। अत: रूप-दर्शन में अप्रमत्त होना चाहिये। ____६२. दिव्यचक्षु का उत्पत्ति क्रम इस प्रकार है-उक्त प्रकार के इस रूप को आलम्बन बनाकर, मनोद्वारावर्जन उत्पन्न होकर निरुद्ध होता है। तब उसी रूप को आलम्बन बनाकर चार पाँच जवन उत्पन्न होते हैं आदि सब को पूर्वविधि के अनुसार ही जानना चाहिये। यहाँ भी पूर्व के चित्त 'सवितर्क-सविचार-कामावचर' होते हैं, अन्तिम अर्थसाधक चित्त चतुर्थध्यान वाला एवं रूपावचर। उसके साथ उत्पन्न ज्ञान को 'सत्त्वों को च्युति एवं उत्पाद का ज्ञान' भी, एवं 'दिव्यचक्षुर्ज्ञान'. भी कहा जाता है। च्युत्युत्पादज्ञान का वर्णन सम्पन्न । प्रकीर्णक ६३. इस प्रकार, पञ्चस्कन्ध के विषय में विज्ञ नाथ (बुद्ध) ने जिन पाँच अभिज्ञाओं (द्र० विसु०, बारहवाँ परिच्छेद) को बतलाया, उन्हें जानकर, उनमें यह प्रकीर्णक कथा भी जाननी चाहिये॥
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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