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________________ १० एवं सब्बथापि विसुद्ध आरकत्ता हतत्ता च किलेसारीन ' सो मुनि । हतुसंसारचक्कारो पच्चयादीन चारहो। न रहो करोति पापानि अरहं तेन वुच्चतीति ॥ ५. सम्मा? सामं च सब्बधम्मानं बुद्धत्ता पन सम्मासम्बुद्धौ । तथाहि एस सब्बधम्मे सम्मा सामं च बुद्धो, अभिय्ये धम्मे अभिय्यतो बुद्धो, परिज्ञेय्ये धम्मे परिञ्जेय्यतो, पहातब्बे धम्मे पहातब्बतो, सच्छिकातब्बे धम्मे सच्छिकातब्बतो, भावेतब्बे धम्मे भावेतब्बतो । तेनेव चाह 44 "अभिञ्ञेय्यं अभिज्ञातं भावेतब्बं च भावितं । पहातब्बं पहीनं मे तस्मा बुद्धोस्मि ब्राह्मणा ति ॥ ( खु०१ / ३५८ गा० ) अपि च चक्खुं दुक्खसच्चं, तस्स मूलकारणभावेन समुट्ठापिका पुरिमतण्हा समुदय क्योंकि यह लोकनाथ प्रत्ययों के साथ विशेष पूजा के योग्य हैं; अतः लोक में अर्थ के अनुरूप जिन (बुद्ध) ही 'अर्हन्त' नाम के योग्य हैं ॥ जिस प्रकार लोक में स्वयं को पण्डित मानने वाले कुछ मूर्ख अपयश के डर से छिपकर पाप करते हैं, उस प्रकार वे (बुद्ध) कभी नहीं करते; (क्योंकि उनके पाप के हेतु तो बोधिमण्ड में ही नष्ट हो जाते हैं) । अतः पापकरण में एकान्तभाव से भी अरहं कहा गया है। क्योंकि प्रिय-अप्रिय आलम्बनों में एक समान रहने वाले (बुद्ध) का पाप कर्मों में कोई दुराव - छिपाव ( = रहस्य) नहीं है, इसलिये वे अर्हन्त के रूप में प्रसिद्ध हैं । ऐसे सब प्रकार से भी— (सभी क्लेशों से ) दूर होने, क्लेशरूपी अरियों का हनन करने, संसारचक्र के अरों का नाश करने, और प्रत्यय आदि के योग्य होने से; तथा वे मुनि क्योंकि छिपकर पाप नहीं करते, अतः अर्हत् कहे जाते हैं । ५. सभी धर्मों को सम्यक् रूप ( = अविपरीत, यथार्थरूप) से और स्वयं ही जानने के कारण सम्मासम्बुद्ध हैं। वस्तुतः उन्होंने सब धर्मों को सम्यक् रूप से और स्वयं जाना, अभिज्ञेय (= जानने योग्य चार आर्य सत्य) धर्मों को अभिज्ञेय के रूप में जाना, परिज्ञेय (विशेष जानने योग्य दुःख आदि) धर्मों को परिज्ञेय रूप में जाना, प्रहाण करने योग्य धर्मों को प्रहाण करने योग्य के रूप में जाना, साक्षात्कार करने योग्य धर्मों (निर्वाण) को साक्षात्कार करने योग्य के रूप में जाना, भावना करने योग्य धर्मों (मार्ग) को भावना करने योग्य के रूप में जाना । इसीलिए कहा गया है— "मैंने जानने योग्य को जान लिया, भावना करने योग्य की भावना कर ली, प्रहाण करने योग्य का प्रहाण कर लिया; इसलिये ब्राह्मण ! मैं बुद्ध हूँ" ॥ और भी - चक्षु दुःखसत्य है, उसके मूल कारण के रूप में (उसे) उत्पन्न करने वाली २. सम्मा ति । अविपरीतं । १, १. एत्थ निग्गहितलोपो । किलेसारीनं, पच्चयादीनं त्यत्थो । ३. सामं ति । सयमेव ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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