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________________ अभिज्ञानिद्देसो ३३५ समयेन तेसु सत्तेसु अभिरूपतरो च दस्सनीयतरो च महेसक्खतरो च बुद्धिसम्पन्नो पटिबलो निग्गहपग्गहं कातुं। ते तं उपसङ्कमित्वा याचित्वा सम्मन्निसु। सो तेन महाजनेन सम्मतो ति महासम्मतो, खेत्तानं अधिपती ति खत्तियो, धम्मेन समेन परे र ती ति राजा ति तीहि नामेहि पञायित्थ। यं हि लोके अच्छरियट्ठानं, बोधिसत्तो व तत्थ आदिपुरिसो ति। एवं बोधिसत्तं आदि कत्वा खत्तियमण्डले सण्ठिते अनुपुब्बेन ब्राह्मणादयो पि वण्णा सण्ठहिंसु। ३६. तत्थ कप्पविनासकमहामेघतो याव जालुपच्छेदो, इदमेकमसद्धेय्यं संवट्टो ति वुच्चति। कप्पविनासकजालुपच्छेदतो याव कोटिसतसहस्सचक्कवाळपरिपूरको सम्पत्तिमहामेघो, इदं दुतियमसङ्ख्येय्यं संवट्ठायी ति वुच्चति। सम्पत्तिमहामेघतो याव चन्दिमसुरियपातुभावो इदं ततियमसङ्ख्येय्यं विवट्टो ति वुच्चति। चन्दिमसुरियपातुभावतो याव पुन कप्पविनासकमहामेघो, इदं चतुत्थमसङ्ख्येय्यं विवट्ठायी ति वुच्चति। इमानि चत्तारि असङ्ख्येय्यानि एको महाकप्पो होति। एवं ताव अग्गिना विनासो च सण्ठहनं च वेदितब्बं । (१) ___३७. यस्मि पन समये कप्पो उदकेन नस्सति, आदितो व कप्पविनासकमहामेघो उट्ठहित्वा ति पुब्बे वुत्तनयेनेव वित्थारेतब्बं । - अयं पन विसेसो-यथा तत्थ दुतियसुरियो, एवमिध कप्पविनासको खारुदकमहामेघो वुट्ठाति । सो आदितो सुखुमं सुखुमं वस्सन्तो अनुक्कमेन महाधाराहि कोटिसतसहस्सचक्कवाळानं उसी कल्प में जब सत्त्वों ने ऐसा निश्चय किया था, यही भगवान् बोधिसत्त्व के रूप में (उत्पन्न हुए थे), जो कि उस समय के सत्त्वों में सुन्दरतम, सर्वाधिक दर्शनीय, सर्वाधिक आदरणीय, बुद्धिमान् एवं संयमी थे। उन (मनुष्यों) ने उनके पास जाकर याचना की एवं उन्हें चुना। वे उन महाजनों के द्वारा सम्मति प्राप्त होने से महासम्मत, क्षेत्रों (=खेतों) के स्वामी होने से क्षत्रिय, धर्म द्वारा समान रूप से सबका रञ्जन करने से राजा-यों तीन नामों से जाने गये। क्योंकि लोक में जो कोई भी आश्चर्यजनक स्थान (साधारण मनुष्य के लिये दुर्विज्ञेय कालखण्ड) होता है, बोधिसत्त्व ही उसके आदिपुरुष होते हैं। यों, बोधिसत्त्व के नेतृत्व में क्षत्रियसमूह के संगठित होने पर, क्रम से ब्राह्मण आदि वर्ण भी संगठित हुए। ३६. कल्प का विनाश करने वाले मेघ से लेकर ज्वाला के बुझने तक इस एक असंख्येय को संवर्त कहते हैं। कल्पविनाशक ज्वाला के बुझने से लेकर दस खरब चक्रवालों को परिपूर्ण करने वाले, पुनर्जीवन (सम्पत्ति) देने वाले महामेघ तक-इस द्वितीय असंख्येय को संवर्तस्थायी कहते हैं। पुनर्जीवनदायी महामेघ से लेकर चन्द्रमा-सूर्य के प्रादुर्भाव तक-इस तृतीय असंख्येय को संवर्त कहते हैं। चन्द्र-सूर्य के प्रादुर्भाव से लेकर पुनः कल्प-विनाशक महामेघ तक-इस चतुर्थ असंख्येय को विवर्तस्थायी कहते हैं। इन चार असंख्येयों को मिलाकर एक महाकल्प होता है। यों अग्नि द्वारा विनाश एवं पुनः सृष्टि को जानना चाहिये। ११) ३७. किन्तु जिस समय कल्प अग्नि द्वारा विनष्ट होता है, उस समय 'आरम्भ में ही कल्पविनाशक मेघ उमड़कर'-यों पूर्वोक्त प्रकार से ही विस्तार से बतलाना चाहिये। अन्तर यह है-जैसे वहाँ द्वितीय सूर्य, वैसे यहाँ कल्पविनाशक एवं खारे पानी वाला महामेघ
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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