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________________ ३३४ विसुद्धिमग्गो ३४. तत्र सुदं इत्थी पुरिसं, पुरिसो च इत्थिं अतिवेलं उपनिज्झायति । तेसं अतिवेलं उपनिज्झायनपच्चया कामपरिळाहो उप्पजति। ततो मेथुनधम्म पटिसेवन्ति। ते असद्धम्मपटिसेवनपच्चया विहि गरहियमाना विहेठियमाना तस्स असद्धम्मस्स पटिच्छादनहेतु अगारानि करोन्ति। ते अगारं अज्झावसमाना अनुक्कमेन अञ्जतरस्स अलसजातिकस्स सत्तस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जन्ता सन्निधिं करोन्ति। ततो पभुति कणो पि थुसो पि तण्डुलं परियोनन्धति, लायितट्टानं पि न पटिविरूहति। ३५. ते सन्निपतित्वा अनुत्थुनन्ति'-"पापका वत, भो,'धम्मा सत्तेसु पातुभूता, मयं हि पुब्बे मनोमया अहुम्हा" (दी० नि० ३/६६१) ति अग्गञसुत्ते वुत्तनयेन वित्थारेतब्बं । ततो मरियादं ठपेन्ति। अथ अज्ञतरो सत्तो अज्ञस्स भागं अदिन्नं आदियति। तं द्विक्खत्तुं परिभासेत्वा ततियवारे पाणिलेड्डुदण्डेहि पहरन्ति। ते एवं अदिन्नादानगरहमुसावाददण्डादानेसु उप्पन्नेसु सनिपतित्वा चिन्तयन्ति-"यं नून मयं एकं सत्तं सम्मन्नेय्याम, यो नो सम्मा खीयितब्बं खीयेय्य, गरहितब्बं गरहेय्य, पब्बाजेतब्बं पब्बाजेय्य, मयं पनस्स सालीनं भागं अनुप्पदस्सामा" (दी० नि० ३/६६२) ति। . एवं कतसन्निट्ठानेसु पन सत्तेसु इमस्मि ताव कप्पे अयमेव भगवा बोधिसत्तभूतो तेन समान होता है, उसे सूप या व्यञ्जन की अपेक्षा नहीं होती। वे (कटु, मधुर आदि) जिस रस का भोजन करना चाहते हैं, वही रस (उसमें प्राप्त) होता है। जब से वे उस ठोस आहार का सेवन करना आरम्भ करते हैं, तब से मल-मूत्र उत्पन्न होता है। उनके निस्तारण के लिये उनमें 'व्रणमुख' (मलद्वार) आदि फट निकलते हैं। इसके बाद पुरुष का पुरुषत्व एवं स्त्री का स्त्रीत्व प्रादुर्भूत होता है। ३४. तब स्त्री पुरुष को एवं पुरुष स्त्री को अपलक देखते हैं। अपलक देखने के कारण उन को कामज्वर उत्पन्न होता है। तब वे मैथुन कर्म का सेवन करते हैं। (इस) असद्धर्म का सेवन करने से विद्वानों द्वारा निन्दित होकर, उपेक्षित होकर, उस असद्धर्म को छिपाने के लिये वे घर बनाते हैं। वे इस घर में रहते हुए, क्रमशः किसी आलसी को देखकर (अन्न का) संग्रह करने लगते हैं। उस समय वे कनी (=कण) भी, भूसी भी, चावल को ढंकने लगते हैं, तब जहाँ से फसल काट ली जाती है, वहाँ अपने आप फिर नहीं उगती। ३५. वे एकत्र होकर विलाप करते हैं-"अरे, सत्त्वों में पाप-धर्म आ गये हैं। पहले हम लोग मनोमय थे" (दी० ३/६६१) इस प्रकरण को अग्गजसुत्त द्वारा विस्तार से समझाना चाहिये। तब सीमा (मेंड़) बाँधते हैं। कोई व्यक्ति किसी दूसरे का भाग चुराने लगता है। एकदो बार गाली-गलौज करने के बाद (न मानने पर) तीसरी बार वे ढेले-डण्डे से मारते हैं। इस प्रकार चोरी, निन्दा, लठमारी आदि आरम्भ हो जाने पर एकत्र होकर चिन्ता करते हैं-"कैसा रहेगा यदि हम किसी एक व्यक्ति को चुने, जो हमारे हित में वस्तुतः दण्डनीय को दण्ड दे, निन्दनीय को निन्दा एवं निर्वासन योग्य को निर्वासित करे? हम (बदले में) उसे शालि का भाग देते रहेंगे।" (दी० नि० ३/६६२)। १. अनुत्थुनन्ती ति। अनुसोचन्ति।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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