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________________ विसुद्धिमग्गो एवं अयं अविज्जा हेतु, सङ्घारा हेतुसमुप्पन्ना, उभो पेते हेतुसमुप्पना ति पच्चय-परिग्गहे पञा धम्मट्ठितित्राणं। अतीतं पि अद्धानं अनागतं पि अद्धानं अविज्जा हेतु, सङ्घारा हेतुसमुप्पन्ना, उभो पेते हेतुसमुप्पना ति पच्चयपरिग्गहे पञा धम्मट्ठितित्राणं ति। एतेनेव नयेन सब्बपदानि वित्थारेतब्बानि । तत्थ अविज्जासङ्घारा एको सङ्केपो, विज्ञाणनामरूपसळायतनफस्सवेदना एको, तण्हुपादानभवा एको, जातिजरामरणं एको। पुरिमसङ्ग्रेपो चेत्थ अतीतो अद्धा, द्वे मज्झिमा पच्चुप्पन्नो, जातिजरामरणं अनागतो। अविज्जासङ्घारग्राहणेन चेत्थ तण्हुपादानभवा गहिता व होन्ती ति इमे पञ्च धम्मा अतीते कम्मवढें, विज्ञाणादयो पञ्च एतरहि विपाकवटुं, तण्हुपादानभवग्गहणेन अविज्जासङ्घारा गहिता व होन्ती ति इमे पञ्च धम्मा एतरहि कम्मवढें, जातिजरामरणापदेसेन विज्ञाणादीनं निद्दिटुत्ता इमे पञ्च धम्मा आयतिं विपाकवटूं। ते आकारतो वीसतिविधा होन्ति। सङ्घारविज्ञाणानं चेत्थ अन्तरा एको सन्धि, वेदनातण्हानमन्तरा एको, भवजातीनमन्तरा एको ति। .. इति भगवा एतं चतुसोपं तियद्धं वीसताकारं तिसन्धिं पटिच्चसमुप्पादं सब्बाकारतो जानाति पस्सति अञाति पटिविज्झति। तं जातठून जाणं, पजाननटेन पञा, तेन वुच्चति'पच्चयपरिग्गहे पञ्जा धम्मट्ठितिजाणं"" ति। इमिना धम्मट्ठितिजाणेन भगवा ते धम्मे यथाभतं यही विधि अन्य उपादानमूलक योजनाओं में भी है। इस प्रकार यह अविद्या हेतु है, संस्कार हेतु से उत्पन्न हैं, ये दोनों ही हेतुसमुत्पन्न हैंइस प्रकार प्रत्यय का ग्रहण करने वाली प्रज्ञा धर्मस्थितिज्ञान (=प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान) है। अतीतकाल में भी, अनागतकाल में भी 'अविद्या हेतु है, संस्कार हेतु से उत्पन्न हैं, ये दोनों ही हेतुसमुत्पन्न हैं'-इस प्रकार प्रत्यय का ग्रहण करने वाली प्रज्ञा धर्मस्थितिज्ञान है। इस विधि से सभी पदों की व्याख्या कर लेनी चाहिये। इनमें, 'अविद्या-संस्कार' एक संक्षेप (=विभाग) है, 'विज्ञान-नामरूप-षडायतन-स्पर्शवेदना' दूसरा। तृष्णा-उपादान-भव' एक, 'जाति-जरा-मरण' दूसरा। प्रथम संक्षेप अतीतकाल से सम्बद्ध है, बीच के दो वर्तमान काल से, जाति और जरामरण अनागतकाल से। और यहाँ अविद्यासंस्कार का ग्रहण करने से तृष्णा-उपादान-भव भी गृहीत होते ही हैं, इस प्रकार ये पाँच धर्म अतीतकाल के कर्म-वृत्त हैं; विज्ञान-आदि पाँच इस समय (=प्रत्युत्पन्नभव) के विपाक-वृत्त है। तृष्णा-उपादान-भव के ग्रहण से अविद्या और संस्कार भी गृहीत होते ही हैं, इस प्रकार ये पाँच धर्म यहाँ के कर्मवृत्त हैं। और क्योंकि जाति और जरामरण का कथन करने से विज्ञान आदि (भी) निर्दिष्ट होते हैं, अत: ये पाँच धर्म अनागत के विपाकवृत्त हैं। ये आकार से बीस प्रकार के होते हैं। यहाँ संस्कार और विज्ञान के बीच एक सन्धि है, वेदना और तृष्णा के बीच एक, भव और जाति के बीच एक सन्धि। इस प्रकार, भगवान् चार संक्षेप, तीन काल, बीस आकार और तीन सन्धियों वाले इस प्रतीत्यसमुत्पाद को सभी प्रकार से जानते हैं, देखते हैं, समझते हैं, गहराई तक पहुँचते हैं। "वह.
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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