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________________ इद्धिविधनिद्देसो २९७ सह अधिट्ठानेन यथा परिच्छिन्ने ठाने पथवी उदकमेव होति। सो तत्थ उम्मुजनिमुजं करोति। तत्रायं पाळि-. "पकतिया आपोकसिणसमापत्तिया लाभी होति। पथविं आवजति। आवजित्वा आणेन अधिट्ठाति-'उदकं होतू'ति, उदकं होति। सो पथविया उम्मुजनिमुजं करोति। यथा मनुस्सा पकतिया अनिद्धिमन्तो उदके उम्मुजनिमुजं करोन्ति; एवमेव सो इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो पथविया उम्मुजनिमुजं करोति, सेय्यथा पि उदके" (खु० नि० ५/४७०) ति। ___ न केवलं च उम्मुजनिमुज्जमेव, न्हान-पान-मुखधोवन-भण्डकधोवनादीसु यं यं इच्छति, तं तं कराति। न केवलं च उदकमेव, सप्पितेलमधुफाणितादीसु पि यं यं इच्छति, तं तं 'इदञ्चिदं च एत्तकं होतू' ति आवजित्वा परिकम्मं कत्वा अधिगृहन्तस्स यथाधिट्टितमेव होति। उद्धरित्वा भाजनगतं करोन्तस्स सप्पि सप्पिमेव होति। तेलादीनि तेलादीनि येव। उदकं उदकमेव। सो तत्थ तेमितुकामो व तेमेति, न तेमितुकामो न तेमेति। तस्सेव च सा पथवी उदकं होति, सेसजनस्स पथवी येव। तत्थ मनुस्सा पत्तिका पि गच्छन्ति, यानादीहि पि गच्छन्ति, कसिकम्मादीनि पि करोन्ति येव। सचे पनायं तेसं पि 'उदकं होतू' ति इच्छति, होति येव। परिच्छिनकालं पन अतिक्कमित्वा यं पकतिया घट-तळाकादीसु उदकं, तं ठपेत्वा अवसेसं परिच्छिन्नट्ठानं पथवी येव होति। कर, परिकर्म करके उक्त प्रकार से ही अधिष्ठान करना चाहिये। अधिष्ठान करते ही, परिसीमित स्थान तक की पृथ्वी जल हो जाती है। वह उसमें डूबता उतराता है। (इस विषय में) पालि यह "स्वभावत: ही अप-कसिण में समापत्ति का लाभ करता है। पृथ्वी का आवर्जन करता है। विचार करने के बाद ज्ञान द्वारा अधिष्ठान करता है-'जल हो जाय', तो जल ही हो जाता है। वह पृथ्वी में डूबता-उतराता है। जैसे ऋद्धिरहित मनुष्य स्वभावत: ही जल में डूबते-उतराते हैं, वैसे ही चित्त को वश में कर चुका वह ऋद्धिमान् पृथ्वी में उसी प्रकार डूबता उतराता है, जैसे जल में।" (खु० नि० ५/४७०)। एवं न केवल डूबना-उतराना, अपितु स्नान, पान, मुखप्रक्षालन, पात्र धोना आदि में से जो जो चाहता है, वह वह करता है। एवं न केवल जल अपितु घी, तेल, मधु, राब आदि से भी जो जो चाहे उसे उसे 'यह यह यहाँ तक हो जाय'-यों आवर्जन कर, परिकर्म कर अधिष्ठान करने वाले के लिये अधिष्ठाने के अनुसार ही होता है। उठा कर पात्र में रखने वाले (योगी) के लिये घी (नैसर्गिक) घी (के समान) ही होता है, तैल आदि (भी) तैल आदि ही। जल जल ही। यदि वह उससे सिक्त (भीगा) होना चाहता है तो होता है, नहीं सिक्त होना चाहता है तो नहीं होता। (किन्तु) केवल उसी के लिये वह पृथ्वी जल होती है, अन्य लोगों के लिये पृथ्वी ही रहती है। वहाँ मनुष्य पैदल भी जाते हैं, वाहन आदि से भी जाते हैं, खेती आदि भी करते ही हैं। किन्तु यदि उनके लिये भी 'जल हो जाय' यों चाहता है, तो होता ही है। किन्तु निश्चित समय के पश्चात् जो नैसर्गिक रूप से घट, सरोवर आदि में जल हो, उसे छोड़कर शेष जो (योगी द्वारा) परिसीमित स्थान हो, वह पृथ्वी ही हो जाता है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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