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________________ विसुद्धिमग्गो तिरोपाकारं तिरोपब्बत्तं आवज्जति, आवज्जित्वा ञाणेन अधिट्ठाति - 'आकासो होतू' ति, आकासो होति, तिरोकुड्डुं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति । यथा पकतिया मनुस्सा अनिद्धिमन्त केनचि अनावटे अपरिक्खते असज्जमाना गच्छन्ति; एवमेव सो इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो तिरोकुडुं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति, सेय्यथापि आकासे" (खु० नि० ५ / ४७० ) ति । २९६ २२. सचे पनस्स भिक्खुनो अधिट्ठहित्वा गच्छन्तस्स अन्तरा पब्बतो वा रुक्खो वा उट्ठेति, किं पुन समापज्जित्वा अधिट्ठातब्बं ति ? दौसो नत्थि । पुन, समापज्जित्वा अधिट्ठानं हि उपज्झायस्स सन्तिके निस्सयगहणसदिसं होति । इमिना च पन भिक्खुना 'आकासो होतू' ति अधिट्ठत्ता आकासो होति येव । पुरिमाधिट्ठानबलेनेव चस्स अन्तरा अञ्ञो पब्बतो वा रुक्खो वा उतुमयो उट्ठहिस्सती ति अट्ठानमेवेतं । अञ्जेन इद्धिमता निम्मिते पन पठमनिम्मानं बलवं होति । इतरेन तस्स उद्धं वा अधो वा गन्तब्बं । २३. पथविया पि उमुज्जनिमुज्जं ति । एत्थ उम्मुज्जं ति उट्ठानं वुच्चति, निमुज्जं ति संसीदनं । उम्मुज्जं च निमुज्जं च उम्मुज्जनिमुज्जं । एवं कातुकामेन आपोकसिणं समापज्जित्वा उट्ठाय 'एत्तके ठाने उदकं होतू' ति परिच्छिन्दित्वा परिकम्मं कत्वा वुत्तनयेनेव अधिट्ठातब्बं । वह पालि इस प्रकार है- "स्वभावतः आकाशकसिण समापत्ति का लाभी होता है, दीवार, प्राकार या पर्वत आर पार का आवर्जन (विचार) करता है। आवर्जन के पश्चात् अधिष्ठान करता है कि 'आकाश हो जाय, तो आकाश हो जाता है। दीवार प्राकार या पर्वत के आर पार (उनसे ) न सटता हुआ जाता है। जैसे ऋद्धि से रहित मनुष्य स्वभावतः किसी खुले या न घिरे हुए स्थान में बिना सटे हुए जाते हैं; वैसे ही चित्त को वश में कर चुका वह ऋद्धिमान् दीवार, प्राकार या पर्वत के आर पार सटते हुए जाता है, जैसे आकाश में।" (खु०५/४७०) २२. यदि भिक्षु अधिष्ठान करने के पश्चात् जब जाने लगे, तब बीच में पर्वत या वृक्ष उठ आयें, तो क्या पुनः समापत्र होने के बाद अधिष्ठान करना चाहिये ? (ऐसा करने में) दोष नहीं है; क्योंकि पुन: समापन्न होकर अधिष्ठान करना उपाध्याय के समीप निःश्रय ग्रहण के समान होता है। इस भिक्षु के द्वारा भी 'आकाश हो जाय' -यों अधिष्ठान किये जाने पर आकाश होता ही है, एवं पहले किये गये अधिष्ठान के बल से यह असम्भव ही है कि ऋतु से उत्पन्न कोई अन्य पर्वत या वृक्ष उसके बीच में आ जाय । किन्तु यदि ये (पर्वत आदि ) किसी दूसरे ऋद्धिमान् द्वारा पहले से ही निर्मित किये जा चुके हों, तो वे बलवान् होते हैं (अतः वे रहते ही हैं) । अन्य (योगी) को उसके ऊपर या नीचे से होकर जाना चाहिये । २३. पथविया पि उम्मुज्जनिमुज्जं - यहाँ उन्मज्जन 'उतारने' को एवं निमज्जन 'डूबने' को कहा गया है। उन्मज्जन एवं निमज्जन- उन्मज्जन- निमज्जन । ऐसा करने के अभिलाषी को अपकसिण आदि में समापन्न होने के बाद उठकर 'इतना स्थान जल हो जाय'- यों सीमा निर्धारित १. 44 'भन्ते! आप मेरे आचार्य हो, मैं आयुष्मान् के आश्रय से रहूँगा " - यों आचार्य के समीप निश्रय ग्रहण करना होता है। यद्यपि उपाध्याय के समीप यों निश्रय ग्रहण करने की अनिवार्यता तो नहीं है, तथापि ऐसा करने में दोष भी नहीं है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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