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________________ इद्धिविधनिद्देसो २७९ सकलजम्बुदीपवासिकानं पि भाजयमानाय धकं न खीयति। दासस्स एकेन नङ्गलेन कसतो इतो सत्त इतो सत्ता ति चुदस्स मग्गा होन्ति । अयं नेसं पुजवतो इद्धि। (८) विज्जाधरादीनं वेहासगमनादिका पन विजामया इद्धि। यथाह-"कतमा विजामया इद्धि? विजाधरा विजं परिजपित्वा वेहासं गच्छन्ति, आकासे अन्तलिक्खे हत्थ पि दस्सेन्ति..पे...विविधं पि सेनाब्यूहं दस्सेन्ती" (खु० नि० ५/३७६) ति। (९) तेन तेन पन सम्मापयोगेन तस्स तस्स कम्मस्स इज्झनं तत्थ तत्थ सम्मापयोगपच्चया इज्झनटेन इद्धि। यथाह-"नेक्खम्मेन कामच्छन्दस्स पहानट्ठो इज्झती ति तत्थ तत्थ सम्मापयोगपच्चया इज्झनटेन इद्धि ...पे०... अरहत्तमग्गेन सब्बकिलेसानं पहानट्ठो इज्झती ति तत्थ तत्थ सम्मापयोगपच्चया इज्झनटेन इद्धी" (खु० नि० ५/४७७) ति। एत्थ च पटिपत्तिसङ्घातस्सेव सम्मापयोगस्स दीपनवसेन पुरिमपाळिसदिसा व पाळि आगता। अट्ठकथायं पन-"सकटब्यूहादिकरणवसेन यं किञ्चि सिप्पकम्मं, यं किञ्चि वेजकम्मं, तिण्णं वेदानं उग्गहणं, तिण्णं पिटकानं उग्गहणं, अन्तमसो कसन-वपनादीनि उपादाय तं तं कम्म कत्वा निब्बत्तविसेसो, तत्थ तत्थ सम्मापयोगपच्चया इज्झनटेन इद्धी" ति आगता। (१०) इति इमासु,दससु इद्धीसु 'इद्धिविधाया' ति इमस्मि पदे अधिट्ठाना इद्धि येव आगता। इमस्मि पनत्थे विकुब्बना मनोमया इद्धियो पि इच्छितब्बा एव। ९. इद्धिविधाया ति। इद्धिकोट्ठासाय इद्धिविकप्पाय वा। चित्तं अभिनीहरति हुए। पुत्र-वधू एक तुम्बीभर जौ लेकर समस्त जम्बूद्वीप के निवासियों में बाँटती रही, किन्तु उसका अनाज समाप्त नहीं हुआ। दास जब एक नङ्गल से खेत जोत रहा था, उस समय इधर उधर सात सात-यों चौदह मार्ग होते गये। यह इनकी पुण्यवान् ऋद्धि है। (८) सीट है। (८) विद्यामय ऋद्धि-विद्याधर आदि का आकाश में उड़ना आदि विद्यामय ऋद्धि है। जैसा कि कहा है-"कौन सी विद्यामय ऋद्धि है ? विद्याधर मन्त्र (विद्या) जपते हुए आकाश में उड़ते हैं, आकाश (शून्य) में अन्तरिक्ष में हाथी भी दिखलाते हैं ...पूर्ववत्... विविध सेना-व्यूह भी दिखलाते हैं" (खु० नि० ५/३७६) । (९) सिद्ध होने के अर्थ में ऋद्धि-उस उस सम्यक् प्रयोग द्वारा उस उस कर्म की सिद्धि, वहाँ वहाँ सम्यक् प्रयोग से उत्पन्न होने से सिद्ध होने के अर्थ में ऋद्धि है" (खु० ५/४७७)। एवं यहाँ सम्यक् प्रयोग अर्थात् मार्ग को सूचित करने के लिये, पहले की पालि के समान ही पालि आयी हुई है। किन्तु अट्ठकथा में 'शकट (गाड़ी) आदि बनाने जैसा जो कोई भी शिल्प है, जो कोई भी वैद्य कर्म, तीन वेदों को सीखना, तीन पिटकों को सीखना, यहाँ तक कि जोतनेबोने आदि से सम्बद्ध कार्य-उस-उस (कार्य) को करने से जो विशेषता उत्पन्न होती है, वह वहाँ वहाँ सम्यक्प्रयोग से उत्पत्ति के कारण सिद्ध होने के अर्थ में ऋद्धि है"-यों आया हुआ है। (१०) 'ऋद्धिविध के लिये' (इद्धिविधाय) इस पद में इन दस ऋद्धियों में से (वस्तुतः) अधिष्ठानऋद्धि ही आयी है, उसी का संकेत है। किन्तु इस अर्थ में विकुर्वण एवं मनोमयऋद्धि को भी समझना चाहिये। 2-20
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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