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________________ २७६ विसुद्धिमग्गो तत्ततेलकटाहं सीसे आसिञ्चि। उत्तरा तङ्कणं येव मेत्तं समापज्जि। तेलं पोक्खरपत्ततो उदकबिन्दु विय विवट्टमानं अगमासि। अयमस्सा समाधिविप्फारा इद्धि। वत्थु पन वित्थारेतब्। (घ) ___सामावती नाम- उदेनस्स रञो अग्गमहेसी। मागण्डियब्राह्मणो अत्तनो धीताय अग्गमहेसिट्टानं अत्थयमानो तस्सा वीणाय आसीविसं पक्खिपापेत्वा राजानं आह-"महाराज, सामावती तं मारेतुकामा वीणाय आसीविसं गहेत्वा परिहरती" ति। राजा तं दिस्वा कुपितो"सामावतिं वधिस्सामी" ति धनुं आरोपेत्वा विसपीतं खुरप्पं सन्नव्हि। सामावती सपरिवारा राजानं मेत्ताय फरि। राजा नेव सरं खिपितुं न आरोपेतुं सक्कोन्बो 'वेधमानो अट्टासि। ततो नं देवी आह-"किं, महाराज, किलमसी" ति? "आम किलमामी" ति। "तेन हि धनुं ओरोपेही" ति। सरो रो पादमूले येव पति। ततो नं देवी "महाराज, अप्पदुटुस्स न पदुस्सितब्बं" ति ओवदि। इति रञो सरं मुञ्चितुं अविसहनभावो सामावतिया उपासिकाय समाधिविप्फारा इद्धी ति। (ङ) (५) पटिक्कूलादीसु पटिक्कूलसञिविहारादिका पन अरिया इद्धि नाम। यथाह-"कतमा अरिया इद्धि? इध भिक्खु सचे आकङ्घति 'पटिक्कूले अपटिक्कूलसञी विहरेय्यं" ति, अपटिक्कूलसञी तत्थ विहरति ...पे०... उपेक्खको तत्थ विहरति सतो सम्पजानो" (खु० नि० ५/४७५) ति। अयं हि चेतोवसिप्पत्तानं अरियानं येव सम्भवतो अरिया इद्धी ति वुच्चति। के साथ अर्हत्त्व प्राप्त किया। पाँच सौ सामानों से दबे हुए भी स्थविर का यों सकुशल रहना समाधिविस्तारऋद्धि है। (ग) उत्तरा उपासिका पुण्यक (नामक) सेठ की पुत्री थी। उससे ईर्ष्या करने वाली सिरिमा नामक वेश्या ने गर्म तैल की कड़ाही उसके सिर पर उड़ेल दी। उत्तरा उसी क्षण मैत्री (-ब्रह्मविहार) में समापन हो गयी। वह तैल कमल के पत्ते पर जल की बूंद के समान लुढ़कता हुआ चला गया। यह उसकी समाधिविस्तार ऋद्धि है। कथा विस्तार से कही जानी चाहिये। (घ) . श्यामावती नामक उपासिका राजा उदयन की अग्रमहिषी (पटरानी) थी। अपनी पुत्री के लिये पटरानी का स्थान चाहने वाले मागन्दिय ब्राह्मण ने उस (श्यामावती) की वीणा में विषधर सर्प प्रविष्ट कराकर राजा से कहा-"महाराज! श्यामावती आप की हत्या करने की इच्छा से वीणा में सर्प लिये फिरती है।" राजा ने (वस्तुतः वहाँ) सर्प देखकर, कुपित होकर 'श्यामावती की हत्या कर दूँ'-ऐसा निश्चय कर धनुष् से विष बुझे शर का सन्धान किया। श्यामवती ने सपरिवार राजा के प्रति मैत्री भावना का विस्तार किया। राजा बाण छोड़ने या (उसे धनुष पर से) उतारने में असमर्थ होकर काँपते हुए खड़ा रहा। तब देवी ने उससे कहा-"महाराज! क्या थक गये हैं?" "हाँ, थक गया हूँ।" "तब धनुष् उतार दीजिये।" (उतारते समय) बाण राजा के पैर के पास ही गिर पड़ा। तब देवी ने उससे कहा-"महाराज! द्वेषरहित के प्रति द्वेष नहीं करना चाहिये।" यों, बाण छोड़ने में राजा की असमर्थता श्यामवती उपासिका की समाधिविस्तार ऋद्धि है। (ङ) (५) आर्य ऋद्धि – 'प्रतिकूल आदि में अप्रतिकूल-संज्ञी होकर विहार करना' आदि आर्य ऋद्धि है। जैसा कि कहा है-"कौन सी आर्य-ऋद्धि है ? यहाँ, यदि भिक्षु चाहता है-'प्रतिकूल
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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