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________________ २७४ विसुद्धिमग्गो बुद्धिमन्वाय पब्बजित्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणि। इति वुत्तनयेनेव दारुचितकाय अरोगभावो आयस्मतो सङ्किच्चस्स आणविप्फारा इद्धि नाम। (ख) भूतपालदारकस्सयन पिता राजगहे दलिद्दमनुस्सो। सो दारूनं अत्थाय सकटेन अटविं गन्त्वा दारुभारं कत्वा सायं नगरद्वारसमीपं पत्तो। अथस्स गोणा युगं ओस्सज्जित्वा नगरं पविसिंसु। सो सकटमूले पुत्तकं निसीदापेत्वा गोणानं अनुपदं गच्छन्तो नगरमेव पाविसि। तस्स अनिक्खन्तस्सेव द्वारं पिहितं । दारकस्स वाळयक्खानुचरिते पि बहिनगरे तियामरत्तिं अरोगभावो वुत्तनयेनेव जाणविप्फारा इद्धि नाम। वत्थु पन वित्थारेतब्बं । (ग) (४). समाधितो पुब्बे वा पच्छा वा तङ्खणे वा समथानुभावनिब्बतो विसेसो समाधिविष्फारा इद्धि। वुत्तं हेतं-"पठमझानेन नीवरणानं पहानट्ठो इज्झती ति समाधिविप्फारा इद्धि...पे०... नेवसज्ञानासञ्जायतनसमापत्तिया आकिञ्चायतनसाय पहानट्ठो इज्झती ति समाधिविप्फारा इद्धि। आयस्मतो सारिपुत्तस्स समाधिविप्फारा इद्धि। आयस्मतो सञ्जीवस्स, आयस्मतो खाणुकोण्डञस्स, उत्तराय उपासिकाय, सामावतिया उपासिकाय समाधिविप्फारा इद्धी" (खु० नि० ५/४७४) ति। तत्थ यदा आयस्मतो सारिपुत्तस्स महामोग्गल्लानत्थेरेन सद्धिं कपोतकन्दरायं विहरतो जुण्हाय रत्तिया नवोरोपितेहि केसेहि अज्झोकासे निसिन्नस्स एको दुट्ठयक्खो सहायकेन यक्खेन किया। यों उक्त प्रकार से ही लकड़ी की चिता पर सकुशल रहना आयुष्मान् सांकृत्य की ज्ञानविस्तार ऋद्धि है। (ख) बालक भूतपाल का पिता राजगृह का एक दरिद्र व्यक्ति था। वह जङ्गल में लकड़ियों के लिये गाड़ी से गया था। लकड़ियाँ लादकर सायंकाल नगरद्वार के समीप पहुँचा। उसी समय उसके बैल जुए का बन्धन तुड़ाकर नगर में घुस गये। वह भी पुत्र (भूतपाल) को गाड़ी के नीचे बैठाकर, बैलों के पीछे पीछे नगर में प्रविष्ट हुआ। उसके लौटने के पहले ही द्वार बन्द हो गया। जिसके पीछे बलशाली यक्ष घूम रहे थे, ऐसे बालक का भी तीन यामों वाली रात्रिपर्यन्त सकुशल रह जाना-उक्त प्रकार से ही ज्ञानविस्तार ऋद्धि कहलाती है। कथा को विस्तार से कहना चाहिये। (ग) (४) समाधिविस्तार ऋद्धि-समाधि से पूर्व, पश्चात् या उसी क्षण शमथ के प्रभाव से उत्पन्न वैशिष्ट्य समाधिविस्तार ऋद्धि है। क्योंकि कहा है-"यह प्रथम ध्यान द्वारा नीवरणों के प्रहाण के अर्थ में सिद्ध होती है, इसलिये समाधिविस्तार ऋद्धि है ...पूर्ववत्... नैवसंज्ञानासंज्ञायतन समापत्ति द्वारा आकिञ्चन्यायतन संज्ञा के प्रहाण के अर्थ में सिद्ध होती है, अतः समाधिविस्तार ऋद्धि है। (जैसे) आयुष्मान् सारिपुत्र की समाधि, आयुष्मान् सञ्जीव की, आयुष्मान् स्थाणुकौण्डिन्य की, उत्तरा उपासिका की, श्यामवती उपासिका की समाधि समाधिविस्तार ऋद्धि है।" (खु० नि० ५/४७४)। इनमें, कुछ ही समय पूर्व मुण्डन करा चुके आयुष्मान् सारिपुत्र जब महामौद्गल्यायन स्थविर के साथ कपोत-कन्दरा (नामक विहार) में विहार करते हुए चाँदनी रात में खुले स्थान में बैठे १. कपोतकन्दरायं ति। एवंनामके अरविहारे। २. नवोरोपितेहि केसेही ति। इत्थम्भूतलक्खणे करणवचनं।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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