SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इद्धिविधनिद्देसो २६७ पठमं झानं समापज्जित्वा आपोकसिणे दुतियं, तेजोकसिणे ततियं, वायोकसिणे चतुत्थं, नीलकसिणं उग्घाटेत्वा आकासानञ्चायतनं, पीतकसिणतो विाणञ्चायतनं, लोहितकसिणतो आकिञ्चायतनं, ओदातकसिणतो नेवसञ्जानासचायतनं ति एवं एकन्तरिकवसेन अङ्गानं च आरम्मणानं च सङ्कमनं अङ्गारम्मणसङ्कन्तिकं नाम। (१०-१२) पठमं झानं पन पञ्चङ्गिकं ति ववत्थपेत्वा दुतियं तिवङ्गिकं, ततियं दुवङ्गिकं, तथा चतुत्थं आकासानञ्चायतनं...पे०...नेवसानासायतनं ति एवं झानङ्गमत्तस्सेव ववत्थापनं अङ्गववत्थापनं नाम। तथा इदं पठवीकसिणं ति ववत्थपेत्वा इदं आपोकसिणं...पे०... इदं ओदातकसिणं ति एवं आरम्मणमत्तस्सेव ववत्थापनं आरम्मणवत्थापनं नाम। अङ्गारम्णववत्थापनं पि एके इच्छन्ति । अट्ठकथासु पन अनागतत्ता अद्धा तं भावनामुखं न होति । (१३१४) ४. इमेहि पन चुद्दसहि आकारेहि चित्तं अपरिदमेत्वा पुब्बे अभावितभावनो आदिकम्मिको योगावचरो इद्धिविकुब्बनं सम्पादेस्सती ति नेतं ठानं विज्जति। आदिकम्मिकस्स हि कसिणपरिकम्मं पि भारो, सतेसु सहस्सेसु वा एको व सक्कोति। कतकसिणपरिकम्मस्स निमित्तुप्पादनं भारो, सतेसु सहस्सेसु वा एको व सक्कोति। उप्पन्ने निमित्ते तं वड्डत्वा अप्पनाधिगमो भारो, सतेसु सहस्सेसु वा एको व सक्कोति। अधिगतप्पनस्स चुद्दसहाकारेहि चित्तपरिदमनं भारो, सतेसु सहस्सेसु वा एको व सक्कोति। चुद्दसहाकारेहि परिदमितचित्तस्सा तेज:कसिण में तृतीय, वायुकसिण में चतुर्थ, नीलकसिण को मिटाकर आकाशानन्त्यायतन, अवदातकसिण से नैवसंज्ञानासंज्ञायतन-यों एक-एक करके अङ्गों एवं आलम्बनों का (भी) अतिक्रमण 'अङ्गालम्बन-समतिक्रमण' कहलाता है। (१०-१२)।। _ 'प्रथम ध्यान के पाँच अङ्ग हैं, द्वितीय के तीन, तृतीय के दो, एवं आकाशानन्त्यायतन ...पूर्ववत्...नैवसंज्ञानासंज्ञायतन'-यों ध्यान के अङ्ग मात्र का व्यवस्थापन अङ्गव्यवस्थापन कहलाता है। तथा यह पृथ्वी है'–यों व्यवस्थापन कर, 'यह अप् कसिण है'...पूर्ववत्...' यह अवदातकसिण है'-यों आलम्बनमात्र का व्यवस्थापन आलम्बन-व्यवस्थापन कहलाता है। कोई कोई अङ्गों एवं आलम्बन का भी व्यवस्थापन मानते हैं। किन्तु अट्ठकथाओं में वर्णन न होने के कारण, निश्चय ही यह (अङ्गालम्बन-व्यवस्थापन) किसी भावना का एक शीर्षक (=भावनाविशेष) नहीं है। (१३१४)। ४. यह असम्भव है कि जिस प्रारम्भिक योगी ने इन चौदह प्रकारों से चित्त का दमन नहीं किया, और पूर्व में (समाधि-) भावना का अभ्यास भी नहीं किया, वह ऋद्धि-विकुर्वण' कर सके। क्योंकि प्रारम्भिक योगी के लिये तो कसिण-परिकर्म (कसिण-निर्माण आदि प्रारम्भिक क्रियाएँ) भी कठिन है; सौ या हजार में से कोई एक ही साधक (उक्त परिकर्म) कर पाता है। जिसने कसिण-परिकर्म कर लिया है, उसके लिये निमित्त का उत्पादं कठिन है, सौ या हजार में से कोई एक ही कर पाता है। निमित्त उत्पन्न होने पर उसे बढ़ाकर अर्पणा को प्राप्त करना भी कठिन है, सौ या हजार में से कोई एक ही कर पाता है। जिसने अर्पणा प्राप्त कर ली है, उसके १. समाधि के प्रभाव से प्राप्त अलौकिक शक्ति (ऋद्धि) द्वारा अपना या अन्य का रूप परिवर्तन करना।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy