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________________ २५६ विसुद्धिमग्गो वायधातुप्पकोपेन होति सत्थमुखे व सो ॥ इति महाविकारानि भूतानी ति महाभूतानि । (घ) महत्ता भूतत्ता चा-ति । एतानि हि महन्तानि महता वायामेन परिग्गहेतब्बत्ता भूतानि विज्जमानत्ता ति महत्ता भूतत्ता च महाभूतानि । एवं सब्बा पेता धातुयो महन्तपातु भावादीहि कारणेहि महाभूतानि । (ङ) सलक्खणधारणतो पन दुक्खादानतो च दुक्खाधानतो च सब्बा पि धातुलक्खणं अनतीतत्ता धातुयो। सलक्खणधारणेन च अत्तनो खणानुरूपधारणेन च धम्मा । खयद्वेन अनिच्चा । भट्ठेन दुक्खा। असारकट्ठेन अनत्ता । इति सब्बासं पि रूप- महाभूत-धातु-धम्मअनिच्चादिवसेन एकत्तं ति एवं नानत्तेकत्ततो मनसिकातब्बा । (६) विनिब्भोगाविनिब्भोगतो ति । सहुप्पन्ना व एता एकेकस्मि सब्बपरियन्तिमे सुद्धट्ठकादिकलापेपि पदेसेन अविनिब्भुत्ता, लक्खणेन पन विनिब्भुत्ता ति एवं विनिब्भोगाविनिभोगतो मनसिकातब्बा । (७) सभागविभागतो ति । एवं अविनिब्भुत्तासु चापि एतासु पुरिमा द्वे गरुकत्ता सभागा। तथा पच्छिमा लहुकत्ता । पुरिमा पन पच्छिमाहि, पच्छिमा च पुरिमाहि विसभागा ति एवं सभागविसभागतो मनसिकातब्बा । (८) अज्झत्तिकबाहिरविसेसतो ति । अज्झत्तिका धातुयो विञणवत्थुविञ्ञत्तिइन्द्रियानं यों महाविकार वाले भूत होने से महाभूत हैं। (घ) महान् एवं भूत होने से - महान् प्रयास द्वारा परिग्रहणीय होने से महान् हैं, विद्यमान होने से भूत हैं। यों, महान् एवं भूत होने से महाभूत हैं। (ङ) स्व-लक्षण को धारण करने से, दुःख का ग्रहण करने से, दुःख को धारण करने से एवं धातु के सभी लक्षणों का अतिक्रमण न करने से धातु हैं। स्व-लक्षण को धारण करने से एवं स्वयं के अनुरूप ( लक्षण को) धारण करने से धर्म हैं। क्षय होने के अर्थ में अनित्य हैं। यों, सभी धातुओं का रूप, महाभूत, धातु, धर्म, अनित्यता आदि के विषय में एकत्व है। इस प्रकार, विभिन्नता एवं एकता के अनुसार मनस्कार करना चाहिये । ( ६ ) (७) पृथक्करण, अपृथक्करण से – देश (स्थान) से उन्हें (एक दूसरे से) पृथक् नहीं किया जा सकता; क्योंकि वे सूक्ष्मतम शुद्धाष्टक' आदि कलाप में भी साथ साथ उत्पन्न होती हैं। (फिर उनके संयोग से बने हुए पदार्थों के बारे में तो कहना ही क्या है ! ) । किन्तु लक्षण के आधार पर इन्हें पृथक् पृथक् किया (-समझा जा सकता है। यों पृथक्करण अपृथक्करण के अनुसार मना करना चाहिये । (८) समान असमान से — यद्यपि वे इस प्रकार अपृथक्करणीय हैं, फिर भी इनमें पूर्व की दो (पृथ्वी एवं अप् - धातु) भारी होने से एक समान हैं, एवं बाद की दो हल्की होने से । पहले वाली पिछली धातुओं के असमान हैं एवं पिछली पहले वाली (धातुओं) के। यों, समानअसमान के अनुसार मनस्कार करना चाहिये । १. चार महाभूत, वर्ण, गन्ध, रस एवं ओज-ये आठ शुद्धाष्टक कहे जाते हैं।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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