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________________ समाधिनिद्देसो २४१ जिण्णकोट्रब्भन्तरे लम्बमानो ठितो' ति; एवमेव न तं सरीरब्भन्तरं जानाति–'मयि पप्फासं लम्बमानं ठितं' ति, न पि पप्फासं जानाति–'अहं एवरूपे सरीरब्भन्तरे लम्बमानं ठितं' ति। अञ्जमलं आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा। इति पप्फासं नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो थद्धो पथवीधातू ति। अन्तं गलवाटककरीसमग्गपरियन्ते सरीरब्भन्तरे ठितं। तत्थ यथा लोहितदोणिकाय ओभुञ्जित्वा ठपिते छिन्नसीसधम्मनिकळेवरे न लोहितदोणि जानाति–'मयि धम्मनिकळेवरं ठितं' ति, न पि धम्मनिकळेवरं जानाति–'अहं लोहितदोणिया ठितं' ति; एवमेव न सरीरब्भन्तरं जानाति–'मयि अन्तं ठितं' ति, न पि अन्तं जानाति–'अहं सरीरब्भन्तरे ठितं' ति। अचमचं आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा। इति अन्तं नाम इमरिंम सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो थद्धो पथवीधातू ति। अन्तगुणं अन्तन्तरे एकवीसतिअन्तभोगे' बन्धित्वा ठितं। तत्थ यथा पादपुञ्छनरज्जुमण्डलकं सिब्बेत्वा ठितेसु रज्जुकेसु न पादपुञ्छनरज्जुमण्डलकं जानाति–'रज्जुका मं सिब्बित्वा ठिता' ति, न पि रज्जुका जानन्ति-मयं पादपुच्छनरज्जुमण्डलकं सिब्बित्वा ठिता' ति; एवमेव न अन्तं जानाति–'अन्तगुणं मं आबन्धित्वा ठितं' ति, न पि अन्तगुणं जानाति'अहं अन्तं आबन्धित्वा ठितं' ति। अञ्जमलं आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा। इति अन्तगुणं नाम इमस्मि सरारे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो थद्धो पथवीधातू ति। उदरियं उदरे ठितं असितपीतखायितसायितं। तत्थ यथा सुवानदोणियं ठिते सुवानवमथुम्हि न सुवानदोणि जानाति–'मयि सुवानवमथुठितो' ति, न पि सुवानवमथु जानाति–'अहं सुवानदोणियं ठितो' ति; एवमेव न उदरं जानाति–'मयि उदरियं ठितं' ति, घोंसला लटक रहा है, न ही पक्षी का घोंसला जानता है-'मैं जीर्ण खलिहान में लटक रहा हूँ'; वैसे ही न तो शरीर का वह भीतरी भाग जानता है-'मुझमें फुफ्फुस लटक रहा है', न ही फुफ्फुस जानता है-'मैं इस शरीर के भीतर लटक रहा हूँ'। ये धर्म ...पूर्ववत्... । यो फुफ्फुस पृथ्वीधातु आँत-आँत शरीर के भीतर गले से लेकर मल मार्ग तक स्थित है। जैसे यदि रक्त की द्रोणी में सिरकटे धामिन (सर्प की एक प्रजाति) साँप के शरीर को मोड़ कर रख दिया गया हो, तो रक्त की द्रोणी नहीं जानती-'मुझमें धामिन साँप का शरीर स्थित है' न ही धामिन का शरीर जानता है-'मैं रक्त की द्रोणी में स्थित हूँ'; वैसे ही न तो शरीर का भीतरी भाग जानता है'मुझमें आँत स्थित है', न ही आँत जानती है-'मैं शरीर के भीतर स्थित हूँ' ये धर्म परस्पर... पूर्ववत्... । यो आँत पृथ्वीधातु है। उदरस्थ पदार्थ-उदर (पेट) में स्थित, खाये-पिये, चबाये-चाटे गये पदार्थ। जैसे यदि कुत्ते (के आहार) की द्रोणी में कुत्ते का वमन रखा हो, तो कुत्ते की द्रोणी नहीं जानती-'मुझमें १. एकवीसतिअन्तभोगे ति। एकवीसतिया लानेसु ओभग्गोभग्गे अन्तमण्डले।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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