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________________ २३८ विसुद्धिमग्गो 'अहं पिट्ठिकण्टकं उक्खिपित्वा ठितं' ति । न पिट्ठिकण्टको जानाति - ' अहं गीवट्ठि उक्खिपित्वा ठितो' ति। न गीवट्ठि जानाति - ' अहं सीसट्ठि उक्खिपित्वा ठित्तं ' ति । न सीसट्ठि जानाति - ' अहं गीवट्ठिम्हि पतिट्ठितं ' ति । न गीवट्ठि जानाति - ' अहं पिट्ठिकण्टके पतिट्ठितं ' ति । न पिट्ठिकण्टको जानाति - ' अहं कटिट्ठम्हि पतिट्ठितो' ति । न कटिट्ठि जानाति -'अहं ऊरुट्ठिम्हि पतिट्ठितं' ति । न ऊरुट्ठि जानाति - ' अहं जङ्घट्ठिम्हि पतिट्ठितं' ति । न जङ्घट्टि जानाति - ' अहं गोप्फकट्ठिम्हि पतिट्ठितं' ति । न गोप्फकट्ठि जानाति - ' अहं पहिकट्ठिम्हि पतिट्ठितं' ति। अञ्ञम आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा । इति अट्ठि नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुञो निस्सत्तो थद्धो पथवीधातू ति ।. अट्ठमिञ्जं तेसं तेसं अट्ठीनं अब्भन्तरे ठितं । तत्थ यथा वेळुपब्बादीनं अन्तो पक्खित्तसिन्नवेत्तग्गादीसु' न वेळुपब्बादीनि जानन्ति - ' अम्हेसु वेत्तग्गादीनि पक्खित्तानी' ति, न पिवेत्तग्गादीनि जानन्ति - 'मयं वेळुपब्बादीसु ठितानी' ति; एवमेव न अट्ठीनि जानन्ति'अम्हाकं अन्तो मिचं ठितं' ति, न पि मिचं जानाति -'अहं अट्ठीनं अन्तो ठितं' ति । अञ्ञम ' आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा । इति अट्ठिमि नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुञ्ञो निस्सत्तो थद्धो पथवीधातू ति । वक्कं गलवाटकतो निक्खन्तेन एकमूलेन थोकं गन्त्वा द्विधा भिन्नेन थूलन्हारुना विनिबद्धं हुत्वा हदयमसं परिक्खिपित्वा ठितं । तत्थ यथा वण्टूपनिबद्धे अम्बफलद्वये न वण्टं जानाति– 'मया अम्बफलद्वयं उपनिबद्धं' ति, न पि अम्बफलद्वयं जानाति - ' अहं वण्टेन उपनिबद्धं' जाँघ की अस्थि जानती है कि मैं कमर की अस्थि को उठाये हुए हूँ। न कमर की अस्थि जानती है कि मैं रीढ़ की अस्थि को उठाये हुए हूँ । न रीढ़ की अस्थि जानती है कि मैं सिर की अस्थि को उठाये हुए हूँ। न सिर की अस्थि जानती है कि मैं रीढ़ की अस्थि पर टिकी हूँ। न रीढ़ की अस्थि जानती है कि मैं कमर की अस्थि पर टिकी हूँ। न कमर की अस्थि जानती है कि मैं जाँघ की अस्थि पर टिकी हूँ। न जाँघ की अस्थि जानती है कि मैं टँखने की अस्थि पर टिकी हूँ। न खने की अस्थि जानती है कि मैं गुल्फ की अस्थि पर टिकी हूँ। न गुल्फ की अस्थि जानती है कि मैं एड़ी की अस्थि पर टिकी हूँ। ये धर्म परस्पर सोच समझ से प्रत्यवेक्षण से रहित हैं। यों अस्थि इस शरीर का एक विशेष भाग है, जो अचेतन, अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व, ठोस पृथ्वीधातु है। अस्थिमज्जा - अस्थिमज्जा उन-उन अस्थियों के अन्दर होती हैं। जैसे कि यदि बाँस के पोरों आदि में भीगे बाँस के अङ्कुर आदि डाल दिये जाँय, तो बाँस के पोर आदि नहीं जानते कि हममें अङ्कुर आदि डाले गये हैं, न ही अङ्कुर आदि जानते हैं-हम बाँस के पोरों में स्थित हैं; वैसे ही अस्थियाँ नहीं जानतीं कि हमारे अन्दर मज्जा स्थित है, न ही मज्जा जानती है कि मैं अस्थियों के भीतर स्थित हूँ। ये धर्म परस्पर सोच-समझ से, प्रत्यवेक्षण से रहित हैं। यों अस्थिमज्जा इस शरीर का एक विशेष भाग है, जो अचेतन, अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व, ठोस पृथ्वीधातु है । वृक्क - वृक्क (गुर्दा ) - गले से निकलने वाले एक ही मूल वाले एवं कुछ दूर जाकर दो भागों में बँट जाने वाले स्थूल स्नायु (मोटी नसों) से बँधा हुआ, हृदय के मांस को घेर कर स्थित १. सिनवेत्तग्गादीसू ति । सेदितवेत्तकळीरादीसु ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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