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________________ २१२ विसुद्धिमग्गो अजेसु हि खन्धेसु अकताभिनिवेसो भिक्खु नेवसञ्जानासचायतनक्खन्धे सम्मसित्वा निब्बिदं पत्तुं समत्थो नाम नत्थि, अपि च आयस्मा सारिपुत्तो। पकतिविपस्सको पन महापञ्जो सारिपुत्तसदिसो व सक्कुणेय्य । सो पि–“एवं किरिमे धम्मा अहुत्वा सम्भोन्ति, हुत्वा पटिवेन्ती" (म० नि० ३/१११२) ति एवं कलापसम्मसनवसेनेव, नो अनुपदधम्मविपस्सनावसेन। एवं सुखुमत्तं गता एसा समापत्ति। । ३२. यथा च पत्तमक्खनतेलूपमाय, एवं मग्गुदकूपमाय पि अयमत्थो विभावेतब्बो- मग्गप्पटिपन्नस्स किर थेरस्स पुरतो गच्छन्तो सामणेरो शोकमुदकं दिस्वा-"उदकं, भन्ते, उपाहना ओमुञ्चथा" ति आह। ततो थेरेन "सचे उदकमत्थि आहर न्हानसाटिकं, न्हायिस्सामा" ति वुत्ते "नत्थि, भन्ते' ति आह। तत्थ यथा उपाहनतेमनमत्तटेन "उदकं अत्थी'" ति होति, न्हायनटेन “नत्थी'' ति होति; एवं पि सा पटुसाकिच्चं कातुं असमत्थताय नेवसञ्जा, सङ्घारावसेससुखुमभावेन विजमानत्ता नासा होति।। न केवलं च एताहेव, अाहि पि. अनुरूपाहि उपमाहि एस. अत्थो विभावेतब्बों। उपसम्पज विहरती ति। इदं वुत्तनयमेवा ति॥ अयं नेवसानासज्ञायतनकम्मट्ठाने वित्थारकथा॥ संज्ञा शेष समापत्तियों में विपश्यना का विषय बनकर निर्वेद उत्पन्न करती है, वैसे भी यह नहीं कर सकती। ___ अन्य स्कन्धों में अभिनिवेश रखने वाला भिक्षु नैवसंज्ञानासंज्ञा स्कन्ध में चिन्तन द्वारा निर्वेद प्राप्त नहीं कर सकता। केवल आयुष्मान् सारिपुत्र या सारिपुत्र के समान स्वभाव से विपश्यी एवं महाप्राज्ञ ही कर सकता है। वे (सारिपुत्र) भी "ऐसे ये धर्म नहीं होकर होते हैं, होकर विनष्ट होते हैं" (म० नि० ३.१११२)-यों कलाप (समूह) के चिन्तन द्वारा ही (निर्वेद प्राप्त कर सके), अनुपद धर्म की विपश्यना (स्पर्श आदि पर पृथक्-पृथक् रूप से, अनित्य आदि के अनुसार विचार करना) द्वारा नहीं। यह समापत्ति इतनी सूक्ष्म होती है। . ३२. जैसे पात्र में लगे तैल को उपमा द्वारा, वैसे ही सड़क पर के जल की उपमा द्वारा भी इस अर्थ को स्पष्ट करना चाहिये मार्ग में किसी स्थविर के आगे आगे चलते हुए श्रामणेर ने थोड़ा जल देखकर कहा"भन्ते, जल है। जूते को उतार लीजिए।" स्थविर द्वारा-"यदि जल है तो स्नान के लिये वस्त्र लाओ, नहा लूँ"-ऐसा कहने पर "नहीं है" ऐसा कहता है; वैसे ही वह संज्ञा अपने निश्चित कृत्य को करने में असमर्थ होने से संज्ञा भी नहीं होती, अवशिष्ट संस्कार के रूप में सूक्ष्मतया विद्यमान होने से असंज्ञा भी नहीं होती। न केवल इन्हीं से, अपितु अन्य भी अनुरूप उपमाओं से इस अर्थ को स्पष्ट करना चाहिये। उपसम्पज विहरति-यह पूर्वकृत व्याख्या के अनुसार ही है। यह नैवसंज्ञानासंज्ञायतन कर्मस्थान की व्याख्या है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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