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________________ २०८ विसुद्धिमग्गो "सन्ता सन्ता", ति पुनप्पुनं आवजितब्बा, मनसिकातब्बा, पच्चवेक्खितब्बा, तक्काहता वितक्काहता कातब्बा। २४. तस्सेवं तस्मि निमित्ते पुनप्पुनं मानसं चारेन्तस्स नीवरणानि विक्खम्भन्ति, सति सन्तिट्ठति, उपचारेन चित्तं समाधियति। सो तं निमित्तं पुनप्पुनं आसेवति, भावेति, बहुलीकरोति। तस्सेवं करोतो विज्ञाणापगमे आकिञ्चायतनं विय आकिञ्चायतनसमापत्तिसङ्खातेसु चतूसु खन्धेसु नेवसञ्जानासायतनचितं अप्पेति। अप्पनानयो पनेत्थ वृत्तनयेनेव वेदितब्बो। एत्तावता चेस "सब्बसो आकिञ्चज्ञायतनं समतिकम्म नेवसानासायतनं उपसम्पज विहरती" (अभि० २/३९५) ति वुच्चति। २५. इधा पि सब्बसो ति । इदं वुत्तनयमेव । आकिञ्चज्ञायतनं समतिक्कम्मा ति । एत्था पि पुब्बे वुत्तनयेनेव झानं पि आकिञ्चञायतनं, आरम्मणं पि। आरम्मणं पि हि पुरिमनयेनेव आकिञ्चकं च तं, ततियस्स आरुप्पज्झानस्स आरम्मणत्ता देवानं देवायतनं विय अधिट्ठानद्वेन आयतनं चा ति आकिञ्चायतनं। तथा आकिञ्चनं च तं, तस्सेव झानस्स सञ्जातिहेतुत्ता "कम्बोजा अस्सानं आयतनं" ति आदीनि विय सञ्जातिदेसटेन आयतनं चा ति पि आकिञ्चायतनं। एवमेतं झानं च आरम्मणं चा ति उभयं पि अप्पवत्तिकरणेन च अमनसिकरणेन च समतिक्कमित्वा व यस्मा इदं नेवसानासचायतनं उपसम्पज्ज विहातब्बं, तस्मा उभयं पेतं एकझं कत्वा आकिञ्चायतनं समतिक्कम्मा ति इदं वुत्तं ति वेदितब्बं । २६. नेवसानासायतनं ति। एत्थ पन याय सजाय भावतो तं नेवसञानाचाहिये। अभाव को आलम्बन बनाकर प्रवृत्त हुई उसी आकिञ्चन्यायतनसमापत्ति की ओर "शान्त, शान्त" इस रूप में बार बार ध्यान देना चाहिये, मनस्कार करना चाहिये, प्रत्यवेक्षण करना चाहिये, तर्क-वितर्क करना चाहिये। २४. उन निमित्त में बार बार मन लगाने वाले के नीवरण दब जाते हैं, स्मृति स्थिर होती है, उपचार से चित्त समाधिस्थ होता है। वह उस निमित्त का मनन, भावना, बार बार अभ्यास करता है। जब वह ऐसा करता है, तब विज्ञान के लुप्त होने पर आकिञ्चन्यायतन (की प्राप्ति) के समान, आकिञ्चन्यायतनसमापत्तिसंज्ञक चार स्कन्धों में नैवसंज्ञानासंज्ञायतन चित्त अर्पणा में उत्पन्न होता है। अर्पणा की विधि पूर्वोक्त के अनुसार ही समझी जानी चाहिये। इसी विषय में कहा गया है-"सर्वथा आकिञ्चन्यायतन का अतिक्रमण कर नैवसंज्ञानासंज्ञायतन को प्राप्त कर विहार करता है" (अभि० २/३९५)। २५. यहाँ भी सब्बसो-यह पूर्वोक्त के अनुसार ही है। - आकिञ्चञायतनं समतिक्कम्म–यहाँ भी पूर्वोक्त के अनुसार ही आकिञ्चन्यायतन ध्यान भी है और उस आकिञ्चन्य को आलम्बन भी समझना चाहिये। तृतीय आरूप्य ध्यान का आलम्बन होने से अधिष्ठान के अर्थ में आयतन भी है, जैसे देवों का आयतन=देवायतन। और भी-वह आकिञ्चन्य है, एवं उसी ध्यान की उत्पत्ति का हेतु होने से उत्पत्ति के देश के अर्थ में आयतन भी है, "कम्बोज अश्वों का आयतन है" आदि के समान, इसलिये भी आकिञ्चन्यायतन है। यों ध्यान एवं आलम्बन दोनों को ही प्रवृत्त न करने से, मनस्कार न करने
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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