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________________ आरुप्पनिद्देसो २०७ सम्मसनं विय वृत्तं, अथ ख्वस्स एवमेव अत्थो दट्टव्यो। तं हि विचाणं अनावजेन्तो अमनसिकरोन्तो अपच्चवेक्खन्तो केवलमस्स नत्थिभावं सुझभावं विवित्तभावमेव मसिकरोन्तो अभावेति विभावेति अन्तरधापती ति वुच्चति, न अज्ञथा ति। आकिञ्चञायतनं उपसम्पज विहरती ति। एत्थ पन नास्स किञ्चनं ति अकिञ्चनं। अन्तमसो भङ्गमत्तं पि अस्स अवसिटुं नत्थी ति वुत्तं होति । अकिञ्चनस्स भावो आकिञ्चनं। आकासानञ्चायतनविज्ञाणापगमस्सेतं अधिवचनं । तं आकिञ्चचं अधिट्ठाननटेन आयतनमस्स झानस्स देवानं देवायतनमिवा ति आकिञ्चञायतनं। सेसं पुरिमसदिसमेवा ति॥ अयं आकिञ्चज्ञायतनकम्मट्ठाने वित्थारकथा ।। ४. चतुत्थारुप्प( नेवसञानासायतन )कथा । २३. नेवसासचायतनं भावेतुकामेन पन पञ्चहाकारेहि आकिङ्ग ञायतनसमापत्तियं चिण्णवसीभावेन "आसन्नविज्ञाणञ्चायतनपच्चत्थिका अयं समापत्ति, नो च नेवसञानासायतनं विय सन्ता'' ति वा “सा रोगो, सञा गण्डो, सञा सल्लं, एतं सन्तं, एतं पणीतं यदिदं नेवसानासा " (म० नि० ३/१०४४) ति वा एवं आकिञ्चायतने आदीनवं, उपरि आनिसंसं च दिस्वा आकिञ्चचायतने निकन्तिं परियादाय नेवसञानासळायतनं सन्ततो मनसिकरित्वा सा व अभावं आरम्मणं कत्वा पवत्तिता आकिञ्चायतनसमापत्ति कहा गया है-'कुछ नहीं है'। वह यद्यपि इस ढंग से कहा गया है कि जैसे ('नत्थि' आदि को) विज्ञान के क्षय के अर्थ में समझा जाना चाहिये; किन्तु उसका अर्थ यही समझना चाहिये। उस विज्ञान के प्रति उन्मुख न होते हुए, मनस्कार न करते हुए, प्रत्यवेक्षण न करते हुए, केवल इसके नास्तित्व, शून्यत्व, विविक्तत्व (रिक्तता) का ही मनस्कार करते हुए (विज्ञान का) अभाव करता है, अनुपस्थित करता है, अन्तर्धान करता है-यह कहा गया है, अन्यथा नहीं (समझना चाहिये)। आकिंञ्चायतनं उपसम्पज विहरति-इसका कुछ (=किञ्चन) नहीं है अतः अकिञ्चन है। अर्थात् यहाँ तक कि इसका भङ्ग भी अवशिष्ट नहीं रहता (क्योंकि भङ्ग भी उसी का सम्भव है, जिसका पहले अस्तित्व हो)। अकिञ्चनत्व ही आकिञ्चन्य है। आकाशानन्त्यायतन से सम्बद्ध विज्ञान के लोप का यह अधिवचन है। वह आकिञ्चन्य अधिष्ठान के अर्थ में इस ध्यान का आयतन है, जैसे देवों का देवायतन; अतः आकिञ्चन्यायतन है। शेष पूर्वानुसार ही है॥ यह आकिञ्चन्यातयन की व्याख्या है। ४. चतुर्थ आरूप्य (नैवसंज्ञानासंज्ञायतन) २३. नैवसंज्ञानासंज्ञायतन की भावना के अभिलाषी को पाँच प्रकार से आकिञ्चन्यायतनसमापत्ति में कुशलता प्राप्त कर "इस समापत्ति का समीपवर्ती वैरी विज्ञानानन्त्यायतन है, एवं यह नैवसंज्ञानासंज्ञायतन के समान शान्त भी नहीं है"-इस प्रकार; या "संज्ञा रोग है, संज्ञा गण्ड (व्रण) है, संज्ञा शल्य (काँटा) है। यह शान्त है, यह उत्कृष्ट है यह जो नैवसंज्ञानासंज्ञायतन है" (म० नि० ३/१०४४)-इस प्रकार आकिञ्चन्यातयन में दोष देखकर तथा आगे (के स्तर में) गुण देखकर आकिञ्चन्यायतन के प्रति आसक्ति छोड़कर नैवसंज्ञानासंज्ञायतन का शान्त के रूप में मनस्कार करना
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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