SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० विसुद्धिमग्गो पन भावना रूपविरागाय संवत्तति। तस्मा ता एत्थ' पहीना ति वत्तुं वट्टति। न केवलं च वत्तुं, एकंसेनेव एवं धारेतुं पि वट्टति । तासं हि इतो पुब्बे अप्पहीनत्ता येव पठमं झानं समापन्नस्स "सद्दो कण्टको" (अं० नि० ४/२४८) ति वुत्तो भगवता। इध च पहीनत्ता येव अरूपसमापत्तीनं आनेञ्जता (अभि० २/१७३) सन्तविमोक्खता (म० नि० १/५०) च वुत्ता। आळारो च कालामो अरूपसमापन्नो पञ्चमत्तानि सकसतानि निस्साय अतिक्कमन्तानि नेब अद्दस, न पन सदं अस्सोसी (दी० नि० २/३८२) ति। १२. नानत्तसञ्जानं अमनसिकारा ति। नानत्ते वा गोचरे पबत्तानं सानं, नानत्तानं वा सञानं । यस्मा हि एता "तत्थ कतमा नानत्तसञा? असमापन्नस्स मनोधातुसमङ्गिस्स वा मनोविज्ञाणधातुसमङ्गिस्स वा सज्ञा सञ्जानना सञ्जानितत्तं, इमा वुच्चन्ति नानत्तसञ्जायो" (अभि० २/३१४) ति एवं विभङ्गे विभजित्वा वुत्ता इधर अधिप्पेता असमापन्नस्स मनोधातुमनोविज्ञाणधातुसङ्गहिता सञा रूपसद्दादिभेदे नानत्ते नानासभावे गोचरे पवत्तन्ति, यस्मा चेता अट्ठ कामावचरकुसलसा , द्वादस अकुसलसा , एकादस कामावचरकुसलविपाकसा , द्वे अकुसलविपाकसञ्जा, एकादश कामावचरकिरियसम्रा ति एवं चतुचत्तालीसं पि सञ्जा नहीं ले जाती (अत: उनके प्रहीण होने की सम्भावना रूपावचर ध्यान में नहीं है)। साथ ही, इन (प्रतिघसंज्ञाओं) की प्रवृत्ति रूप पर ही निर्भर होती है। किन्तु यह (अरूपावचर भावना) रूपविराग की ओर ले जाती है। इसलिये यह कहना उचित है कि ये यहाँ (प्रथम आरूप्य में) प्रहीण हो जाती हैं। और न केवल कहना, अपितु पूरी तरह से ऐसा मानना भी उचित है। क्योंकि ये इससे पहले प्रहीण नहीं होती, इसीलिये भगवान् ने कहा है कि प्रथमध्यानलाभी के लिये "शब्द कण्टक (के समान) हैं" (अं० नि० ४/२४८)। एवं यहाँ प्रहीण होने से ही अरूपसमापत्तियों की स्थिरता (आनिङ्ग्यता) एवं शान्त विमोक्ष रूप होना (म० नि० १/५०) बतलाया गया है। अरूप (ध्यान) लाभी आळार कालाम ने अपने पास से गुजरती हुई पाँच सौ गाड़ियों को न तो देखा और न ही उनकी ध्वनि सुनी। (दी० नि० २/३८२)। १२. नानत्तसञानं अमनसिकारा-('नानत्तसञ्जानं' का अर्थ है)-नानात्व (से युक्त, नाना) गोचरों में प्रवृत्त संज्ञाओं के प्रति या नानात्व संज्ञाओं के प्रति। क्योंकि "उनमें नानात्वसंज्ञा क्या है? जो (ध्यान-) समापत्ति-लाभी नहीं है, मनोधातु से युक्त या मनोविज्ञानधातु से युक्त है, उसकी संज्ञा, संज्ञानता, संज्ञित-ये नानत्व संज्ञाएँ कही जाती हैं" (अभि० २/३१४)-यों विभङ्ग में विभाजन करके कही गयीं तथा इस प्रसङ्ग में अभिप्रेत, असमापन्न की मनोधातु और मनोविज्ञान धातु में संगृहीत संज्ञा रूप, शब्द आदि के भेद से नानात्व में, नाना स्वभाव के गोचर में प्रवृत्त होती हैं (इसलिये "नानात्व संज्ञाएँ" कही जाती हैं)। अथवा, क्योंकि आठ कामावचर कुशल संज्ञा, बारह अकुशल संज्ञा, ग्यारह कामावचर कुशलविपाक संज्ञा, दो अकुशलविपाक संज्ञा, ग्यारह कामावचर' या संज्ञा यों चौवालीस संज्ञाएँ (४४) भी नाना, नानास्वभाववाली, परस्पर असमान हैं, अत: 'नानात्वसंज्ञा' कहा गया है। उन १. एत्था ति। पठमारुप्पकथायं। २. इधा ति। अरूपज्झाने।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy