SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ विसुद्धिमग्गो ति। सज्ञासीसेन वुत्तरूपावचरज्झानानं चेव तदारम्मणानं च। रूपावचरज्झानं पि रूपं ति वच्चति "रूपी रूपानि पस्सती" (दी० नि० २/३६५) ति आदीसु। तस्स आरम्मणं पि "बहिद्धा रूपानि पस्सति सुवण्णदुब्बण्णानी" (दी० नि० २/३६५) ति आदिसु। तस्मा इध रूपे सज्ञा रूपसञा ति एवं सज्ञासीसेन वुत्तरूपावचरज्झानस्सेतं अधिवचनं । रूपं सञ्जा अस्सा ति रूपसजे। रूपं अस्स नामं ति वुत्तं होति। पथवीकसिणादिभेदस्स तदारम्मणस्स चेतं अधिवचनं ति वेदितब्बं । समतिक्कमा ति। विरागा निरोधा च। किं वुत्तं होति.? एतासं कुसलविपाककिरियवसेन पञ्चदसन्नं झानसङ्घातानं रूपसानं, एतेसं च पथवीकसिणादिवसेन नवन्नं आरम्मणसङ्घातानं रूपसञानं सब्बाकारेन अनवसेसानं वा विरागा च निरोधा च विरागहेतुं चेव निरोधहेतुं च आकासानञ्चायतनं उपसम्पज विहरति । न हि सक्का सब्बसो अनतिक्कन्तरूपसञ्जेन एतं उपसम्पज्ज विहरितुं ति। ९. तत्थ यस्मा आरम्मणे अविरत्तस्स सञ्जासमतिक्कमो न होति, समतिक्कन्तासु च सञ्जासु आरम्मणं समतिक्कन्तमेव होति । तस्मा आरम्मणसमतिक्कम अवत्वा "तत्थ कतमा रूपसज्ञा? रूपावचरसमापत्तिं समापनस्स वा उपपन्नस्स वा दिट्ठधम्मसुखविहारिस्स वा सञा सञ्जानना सञ्जानितत्तं, इमा वुच्चन्ति रूपसायो। इमा रूपसज्ञायो अतिक्वन्तो होति वीतिक्वन्तो समतिक्कतो, तेन वुच्चति सब्बसो रूपसानं समतिकमा" (अभि० २/३१४) रूपसानं–'संज्ञा' के अन्तर्गत बताये गये रूपावचर ध्यानों एवं उनके आलम्बनों का। "रूपी रूपों को देखता है" (दी० नि० २/३६५) आदि में रूपावचर ध्यान को भी रूप कहा गया है। "सुवर्ण (सुरूप) दुर्वर्ण (कुरूप) रूपों को बाह्य के रूप में देखता है'' (दी० नि० २/३६५) आदि में उसके आलम्बन को भी (रूप कहा गया है)। इसलिये यहाँ 'रूपसंज्ञा' का तात्पर्य है 'रूप के विषय में संज्ञा'। यों 'संज्ञा' के अन्तर्गत बतलाये गये रूपावचर ध्यान का (ही) यह नाम है। रूप इसकी संज्ञा है अतः यह 'रूपसंज्ञा' है। अर्थात् रूप इसका नाम (अधिवचन) है। उस (ध्यान) के पृथ्वीकसिण आदि भेद वाले आलम्बन का भी यह नाम है-ऐसा जानना चाहिये। समतिक्कम्मा-विराग से, निरोध से। अर्थात् ? कुशल, विपाक एवं क्रिया-इन पन्द्रह ध्यानसंज्ञक रूपसंज्ञाओं के प्रति एवं इनके पृथ्वीकसिण आदि नव आलम्बनसंज्ञक रूपसंज्ञाओं के प्रति सब प्रकार से, या अशेष (रूपसंज्ञाओं) के प्रति विराग से एवं निरोध से, अर्थात् विराग के कारण और निरोध के कारण आकाशानन्त्यायतन को प्राप्त कर साधना करता है। जिसने रूपसंज्ञा का सर्वथा अतिक्रमण नहीं किया हो, वह इसे प्राप्त कर साधना नहीं कर सकता। ९. वहाँ, क्योंकि आलम्बन के प्रति विरक्त न होने वाला (योगी) संज्ञा की सीमा से परे नहीं जाता, एवं संज्ञा की सीमा पार कर लेने पर, तो आलम्बन का अतिक्रमण हो ही जाता है; अतः आलम्बन के अतिक्रमण के बारे में न कहकर, विभङ्गप्रकरण में इस प्रकार संज्ञाओं का ही अतिक्रमण बतलाया गया है-"वहाँ कौन-सी रूपसंज्ञा है? रूपावचरसमापत्तिलाभी की, या उस (रूपावचरसमापत्ति) में उत्पन्न की, या दृष्टधर्मसुखविहारी की संज्ञा (स्पष्ट ज्ञान), संज्ञानता (जानना), संज्ञित (ज्ञात होने स्थिति)-ये रूपसंज्ञाएँ कही जाती हैं। ये रूपसंज्ञा अतिक्रान्त,
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy